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लवजी नामक लोंकामती ऋषि ने चालू किया) परन्तु इनके आचार भी जैनागमानुकूल नहीं थे। इसलिये चारित्रवानों से शिथिलाचारियों एवं आगम के प्रतिकूल प्ररूपणा-वालों को अलग पहचानना असंभव हो गया था।
बीच-बीच में कई भव-भीरू मुमुक्षु मुनिराजों ने क्रियोद्धार भी किया। फिर भी यह शिथिलाचार कम न हुआ। आगम प्रतिकूल प्ररूपकों का विस्तार भी बढ़ता गया। सम्राट अकबर प्रतिबोधक तपागच्छाधिपति जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि जी के चौथे पाट पर गणि श्री सत्य विजय जी ने शुद्ध चारित्रधारी श्वेतांबर संवेगी मुनिराजों की पहचान के लिये उन्हें पीले रंग की चादर ग्रहण करने का आदेश दिया। श्री गणि सत्यविजय जी महाराज
राजस्थान में लाडनुं गांव है वहां के बीसा ओसवाल दूगड़ गोत्रीय शिवराज ने 14 वर्ष की आयु में वि.सं. 1688 (ई.सं. 1631) में संवेगी तपागच्छीय श्वेताम्बर जैन आचार्य श्री विजयसिंह सूरि से दीक्षा ग्रहण की। गुरु ने आपका नाम 'सत्यविजय' रखा। आपने शास्त्राभ्यास और साधुक्रिया आदि का अभ्यास किया। आपके त्याग, तप, चारित्र, वैराग्य, ज्ञान आदि से प्रभावित होकर गुरु जी ने आपको आचार्य पदवी देने का निश्चय किया। आपने आचार्य पदवी लेने से सर्वथा मना कर दिया। आप नित्य छठ-छठ (बेले-बेले) के तप के साथ विहार करने लगे। क्रमशः आप विहार करते हुए मेड़ता आये। यहाँ आपके गुरु का जन्मस्थान था। यहां पर यति लाभानन्द जी भी रहते थे। लाभानन्द जी सब वस्तुओं का एक दम त्याग कर जंगल में चले गये और योगाभ्यास कर उच्च कोटि के योगी बने। इन्होंने अपना नाम बदल कर आनन्दघन रख लिया। यहां आने पर इनका सत्यविजय जी को समागम हुआ और इनके साथ बनवास में कई वर्ष व्यतीत किये।
हम लिख आये हैं कि इस समय जैनों में श्वेताम्बर (श्वेत-वस्त्रधारी) संवेगी, यति और लौंकामती ये तीन प्रकार के साधु थे। (उस समय तक तेरापंथी मत का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था) इन तीनों का वेष प्रायः एक जैसा होने से सर्व परिग्रह त्यागी तथा जैनागमानुकूल शुद्ध चारित्र मार्ग के अनुयायियों की पहचान जनता के लिये असंभव थी। इससे मुमुक्षुओं को आत्मसाधन के लिये सच्चे मार्गदर्शक मुनिराजों की संगत पाना सरल न था।
____ मुनि श्री सत्यविजय जी के गुरु आचार्य विजयसिंह सूरि का वि.सं. 1708 (ई.सं. 1652) आषाढ़ सुदि 2 को अहमदाबाद में स्वर्गवास हो गया। वह आपको अपने उत्तराधिकारी बना गये।
सात-आठ सौ साधु आपकी आज्ञा में थे। महोपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराज, उपाध्याय श्री विनय विजय जी महाराज, मुनि श्री ज्ञानविजय जी आदि प्रकांड विद्वान तथा अन्य भी आदर्श चारित्र-सम्पन्न मुनिराज आपके तप, त्याग, वैराग्य तथा विद्वता से बहुत प्रभावित हुए थे। आप वि.सं. 1717 (ई.सं. 1660) में राजस्थान के सोजत नगर में पधारे और वहां पर पन्यास पद प्राप्त किया। इस अवसर पर आपने क्रियोद्धार कर के जैनागमानुकूल शुद्ध चारित्रवान त्यागी, संवेगी श्वेताम्बर जैन साधुओं की पहचान के लिये स्वयं पीली चादर का प्रचलन किया और अपने शिष्य परिवार को भी ऐसा करने का आदेश दिया।
तपागच्छ-पट्टावली
चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु 1. गणधर-श्री सुधर्मा-स्वामी (निग्रंथगच्छ)
9. श्री आर्य सुस्थित सूरि तथा 2. श्री जम्बूस्वामी (अंतिम केवली)
श्री सुप्रतिबद्ध सूरि (कोटिक गच्छ) 3. श्री प्रभवस्वामी
10. स्थविर इन्द्रदिन्न सूरि (पंजाब में पेशावर 4. श्री शय्यंभव सूरि
_के प्रदेश में प्रश्नवाहनक कुल की स्थापना) 5. श्री यशोभद्र सूरि
11. स्थविर दिन्न सूरि (आपके शिष्य शांति 6. श्री संभूतिविजय तथा श्री भद्रबाहु
श्रेणिक से पंजाब में उच्चनागरी शाखा) 7. श्री स्थूलिभद्र
12. श्री आर्य सिंह सूरि (गर्द्धभिल्ल उच्छेदक 8. श्री आर्य महागिरि तथा
कालिकाचार्य समकालीन) श्री आर्य सुहस्ति (सम्राट संप्रति प्रतिबोधक) 13. श्री आर्य वज्रस्वामी (वज्रीशाखा)
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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