Book Title: Vijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Author(s): Pushpadanta Jain, Others
Publisher: Akhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti

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Page 21
________________ आचार्य श्री जगत्चन्द्र सूरि के दो शिष्य थे। 1. आचार्य श्री देवेन्द्र सूरि : आप छोटी आयु में दीक्षित हुए, परम-त्यागी, समर्थ ग्रंथकार थे, आपने विवाह के लिये जाते हुए सजे सजाये वरराजा को विवाह के दिन प्रतिबोधित कर दीक्षित किया। ऐसे समर्थवान अमोघ शक्तिशाली थे। आप अपने गुरु आचार्य श्री जगत्चन्द्र सूरि के क्रियोद्धार के कार्य में अनन्य सहायक बने। आप का वि.सं. 1327 में मालवा में स्वर्गवास आपने पाँच कर्मग्रंथों की रचना भी की थी। आचार्य श्री विद्यानन्द सूरि तथा आचार्य श्री धर्मघोष सूरि (उपाध्याय धर्मकीर्ति जी) आदि आपके शिष्य थे। इन से लघु-पोषाल शाखा निकली है। हुआ। - विक्रम की तेरहवीं सदी में आचार्य श्री जगत्चन्द्र सूरि के शिष्यों से 'तपागच्छ' तथा इनके गुरुभाइयों के शिष्यों से 'बड़गच्छ' का नामांतर भेद हुआ। पर इन दोनों गच्छों में सिद्धातों की एकता, सामाचारी की समानता, क्रिया की अभेदत से तथा प्रत्येक प्रकार से पूर्ववत एक रूप से घनिष्ठ सम्बन्ध ही रहे थे। तपागच्छ मुनियों का दिग्बन्ध इस प्रकार है : इस प्रकार निर्ग्रथ- गच्छ का छठा नाम तपागच्छ हुआ। भगवान महावीर के पांचवें गणधर श्री (1) सुधर्मा स्वामी से निर्ग्रवगच्छ (2) श्री सुधर्मा स्वामी के नवें पट्टधर श्री सुस्थिताचार्य से कौटिक गच्छ (3) पंद्रहवें पट्टधर श्री चन्द्रसूरि से चन्द्रगच्छ (4) सोलहवें पट्टधर श्री समंतभद्र सूरि से वणवासी गच्छ (5) पैंतीसवें पट्टधर श्री उद्योतन सूरि से बड़गच्छ (6) 44वें पट्टधर श्री जगच्चन्द्र सूरि से तपागच्छ निकले। इस प्रकार अनुक्रम से छह गच्छों के प्रवर्तक छह आचार्य हुए। भविष्यवाणी "कोटिक गण, चन्द्रकुल, वज्रीशाखा, तपागच्छ" इत्यादि तपागच्छ के अभ्युदय सूचक भिन्न-भिन्न देवी वचन प्राप्त होते रहे हैं उनमें से मात्र दो यहाँ देते हैं (1) विक्रम की 14वीं शती के प्रारंभ से शासनदेवी ने संग्राम सोने को कहा कि "हे संग्राम ! भारत में उत्तमोत्तम गुरु आचार्य श्री देवेन्द्र सूरि हैं, इनका मुनिवंश विस्तार पावेगा और युगपर्यन्त चालू रहेगा। तुम इस गुरु की सेवा करो।" (2) मणिभद्र वीर ने श्री विजयदान सूरि को स्वप्न में कहा कि "तुम्हारे (तपागच्छ ) की मैं कुशलता करूंगा। तुम अपने पाट पर विजय शाखाको स्थापन करना।" विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार वीर निर्वाण संवत 609 (वि.सं. 139, ई.सं. 82-86) में भगवान महावीर के निग्रंथ संघ में से दिगम्बर पथ संप्रदाय की उत्पत्ति हुई। दिगम्बर साधु निर्वस्त्र (एकदम नग्न) रहने लगे और तब से प्राचीन निग्रंथ संघ 'श्वेताम्बर' नाम से प्रसिद्धि पाया । श्वेतांबर-‘श्वेत-अम्बर' इन दो शब्दों के मेल से बना है, इस का अर्थ है 'श्वेत वस्त्रधारी' । श्वेताम्बर श्रमण - श्रमणी ( साधु-साध्वी) ऋषभदेव से लेकर श्वेतवस्त्रों को धारण करते आ रहे हैं इसीलिये ये निर्बंध श्रमण- श्रमणी श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध हुए प्रभु महावीर के निर्वाण के लगभग एक हज़ार वर्ष बाद अधिकतर श्वेताम्बर साधु शिथिल हो गये थे। ये लोग साधु के पांच महाव्रत तो धारण कर लेते थे और साधु का वेष भी धारण कर लेते थे परन्तु बन बैठे थे चैत्यवासी निग्रंथ श्वेताम्बर देष में इन का आचरण एकदम मुनिचर्या के विपरीत था। ये लोग भट्टारक, श्री पूज्य, यति, गोरजी, गुरौं जी आदि नामों से प्रसिद्ध हो गये परन्तु धारण श्वेत वस्त्र ही करते थे। दिगम्बरों में भी शिथिलाचार बढ़ा। इस संप्रदाय में भी अनेक दिगम्बर मुनि लाल वस्त्र धारण करके चैत्यवासी बन गये। बड़ी-बड़ी जागीरों तथा मठों के मालिक बनकर भट्टारक और यति के नाम से पूजे जाने लगे। श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों जैन संप्रदायों में मुनि के व्रत धारण करने वाले मठचारी बन बैठे, जिनमंदिरों में रहने लगे और इन मंदिरों की आय पर निर्वाह करने लगे। ज्योतिष, चिकित्सा, मंत्र, यंत्र, जादू टोने करके भोले-भोले लोगों को चमत्कार दिखलाकर उनसे दक्षिणा-भेंट आदि लेकर राजसी ठाठ से रहने लगे। कच्चे जल से स्नान करना, सवारी, छत्र, चामर आदि धारण करके राजा-महाराजाओं जैसे ठाट पूर्वक कई जागीरों के मालिक भी बन बैठे सोने की गिन्नियों मोहरों से अपने नी अंगों की पूजा कराना, नगदी सोना चांदी आदि भेंट में लेना। हाथी, रथ, घोड़े, ऊंट की सवारी करना तो साधारण बात थी। - | 50 इस प्रकार शुद्ध चारित्रवान श्वेतांबर संवेगी साधुओं और चैत्यवासी यतियों के वेष में कोई अन्तर न था। वि.सं. 1508 से लोंकामत की उत्पत्ति हुई थी, इस मत के साधु भी श्वेत वस्त्र धारी थे। परन्तु मुंह पर मुंहपत्ती नहीं बाँधते थे। (मुंहपत्ती बांधना वि.सं. 1706, ई.सं. 1652 में Jain Education International विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only 19 www.jalnelibrary.org

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