Book Title: Tristuti Paramarsh
Author(s): Shantivijay
Publisher: Jain Shwetambar Sangh

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Page 10
________________ (८...... [ लावनी-अष्टपदी.-] [ जगतमें नवपदजयकारी-सेवतां पापटले भारी, ] . (इसचालपर-) मुनिश्री शांतिविजयजी आप-जग्तके मेटदिये संताप, सुखसंसारसे मुखमोडयो-कुटुंबसें सवनातो तोड्यो, ध्यान निज जिनप्रभुसें जोडयो-लोभ और मोहकाम छोडयो, (दोहा.) पंचमहाव्रतधारके-करतेहो उपकार, छकायाके जीवबचाते-मुनिजी वारंवार,.. भुलकर नहीकरते संताप-जग्तके मेटदिये सब पाप, मुनिश्री, १ कामना छोडी सारीको तरसना मारी भारीको,धन्य ऐसे आचारीको-नमनहैदृढव्रतधोराका, .. (दोहा.) पुदगल परिचय छोडियो-भव्यजीवनके काज, . विचरतहो सबजग्तमे स्वामी-धर्मध्यानके जहाज, अनुकंपा रही दिलमें व्याप-जग्तके मेटदिये संताप, मुनिश्री. २, दोषसन कर्मनको टार्यो-गरव तनमनसे सब गार्यो, धर्म जिनवरकों विसतार्यो-अन्यमत चितमें नहीं धार्यों, (दोहा.) मिथ्यामतकों खंडन किनो-जिनमतमंडन कीन, श्रीजिनप्रभुके चरनसरनमें-रहतेहै लयलीन, दुष्टजन गये आपसे कांप-जग्तके मेटदिये संताप, मुनिश्री, ३, इंद्रियां पांचोकों मारी-आपने तजे कनक नारी, धर्मके ग्रंथ रचे भारी-वचन सब माने संसारी, (दोहा.) कहांतलक बननकरु-मुनिजी परमदयाल, सुरजमल्लकी हाथजोडकर-वंदना ल्यो प्रतिपाल, प्रभुका नित उठकरते जाप-जग्तके मेट दिये संताप. मुनिश्री, ४, (इति-अष्टपदी लावनी समाप्त.)

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