Book Title: Tristuti Paramarsh
Author(s): Shantivijay
Publisher: Jain Shwetambar Sangh

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Page 84
________________ ७४ (त्रीस्तुतिपरामर्श.) धर्ममें एक रुप-नहीहोसकते-बहुतठीकहै, जैनाचार्यश्रीहीरविजयसूरिजीने-जब-शत्रुजय-गिरनार-समेतशिखर-राजगृही-पावापुरीवगेरातीर्थोके फुरमानपत्र बादशाह अखबरसे करवायेथे-ये-ये तीर्थ-जैन श्वेतांबरके लिखेहै, इसपर लेखक खयालकरे. जिज्ञासुजनमनःसमाधिकिताबके सफह (१६) पर बयानहै शांतिविजयजीका कहनाहैकि-शुभइरादेसे रागद्वेष करनेमें कुछ हर्ज नही. . (जवाब.) लेखक-अगर इसबातकों नामंजूररखतेहै-तो-बतलावे ! धर्ममें विघ्न डालनेवाले नमुचिको विश्नुकुमार मुनिने-क्यौंसजा दिइ ? महाराज-कालिकाचार्यजी गर्दभिल्लराजाके सामने इ. रादे धर्मके क्यों लडाइमें सामीलहुवे, ? इनका कषायकरना दुनियादारीकेलिये था-या-धर्मके लिये ? शांतिविजयजीकी दलीलकों तोडनेकी कोशिश तो करतेहो मगर-टुट नही सकती, बल्कि ! पुख्ताहोती जातीहै. कल्पसूत्रमें जहां गौतमस्वामीका बयानहै देखो ! क्यालिखाहै,? कल्पसूत्र-वृत्तिका-पाठ, ( अनुष्टुप्-वृत्तम्. ) अहंकारोपिबोधाय-रागोपि गुरुभक्तये, विषादः केवलायाभूतू-चित्रं श्रीगौतमप्रभोः,-- [मायना.] गौतमस्वामीका-अहंकारभी-प्रतिबोधपानेकेलिये हुवा, रागकिया-तो-तीर्थकरमहावीर जैसे गुरुकी भक्तिपर किया. तीर्थकरमहावीर स्वामीके निर्वाणहोनेपर रंज किया-सोभी-फायदेमंद हुवा, सोचो ! इसबातकोकि-इसका नतीजा क्या निकला ? अहंकार -राग-और-विषाद इरादे धर्मके फायदेमंदहुवे-या-नहो,

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