Book Title: Tristuti Paramarsh
Author(s): Shantivijay
Publisher: Jain Shwetambar Sangh

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Page 21
________________ (त्रिस्तुतिपरामर्श.) थाकि-(१००) सो लाखकों कोई कोटि न समझे, और सीर्फ ! बीसकोंही कोटी समझे, ग्रंथकर्ताके फरमानेपर खयाल करनाचाहिये, जिसमतलबपर जो बात फरमाइहो उसीमतलबपर उसका माइना समजझना चाहिये, क्या ! एक शब्दके कई माइने नहीहो सकते, ? अगर होसकतेहै-तो-फिर कोटिशब्दके बारेमेंभी वही बात क्यों नहीं समझते ? देखो, कल्पसूत्रमें जहां तीर्थकर महावीरस्वामीका बयानहै, और जिसजगह देवदुष्य वस्त्र गिरगयाहै उसके बारेमें टीकाकारने कितने माइनेकरके दिखलायेहै, . ( पाठ-कल्पसूत्रका,) मासाधिकसंवत्सरादूई विहरन् दक्षिणचावालपुरासन्नसुवर्णवालुका नदीतटे कंटकेविलग्य देवदुष्यापतितेसति भगवान् सिंहावलोकनेनतद्राक्षीत्-ममत्वेनैतिकचित्-१, स्थंडिले-वा-पतितंइतिविलोकनायेत्यन्वे, २, अस्मत्संततेवस्त्रपात्रं सुलभं दुर्लभं-वा-भावीतिविलोकनार्थ-इतिअपरे, ३, वृद्धास्तु कंटके वस्त्रविलग्नात् स्वशासनं कंटकबहुलं भविष्यतीतिविज्ञाय निर्लोमत्वात्वस्त्राई-न-जग्राह इति, ४, . (माइना,) तीर्थकर महावीरस्वामीका जब देवदुष्यवस्त्र स्वर्णवालुका नदीकनारे गिरगयाथा-उसपर कितनेक आचार्य फरमातेहै उनोने जो सिंहावलोकनसें देखा-ममत्वसे देखा, १ कोइ कहतेहै अछीजमीनपर गिरा-या-बुरीपर उसकोलिये देखा, २,

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