Book Title: Tristuti Paramarsh
Author(s): Shantivijay
Publisher: Jain Shwetambar Sangh

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Page 78
________________ ६८ (त्रिस्तुतिपरामर्श.) तहै कि-इससबुतकोंतोडे, विद्वान् उसीकानामहै जैसासवालहो-उसका वैसा जवाबदेवे, जिससे उसकामतलब हासिलहो. यहनहीकि-चर्चाचलतीहो प्रतिक्रमणकी-और-सबुतदेवे मंदिरका, अगरकोइ तीनथुइ माननेवाले कहे हमकों चैत्यवंदनभाष्य मंजुरनही तो उसको खयालकरना चाहिये-नवांगसूत्रकी टीकाबनानेवाले श्रीमान्-अभयदेवमूरिजी-महाराज देखो ! पंचाशकसूत्रकी टीकामें क्या! फरमा रहे है, - (पंचाशकवृत्तिका-पाठ,-) . चैत्यवंदनभाष्यकारादिभिरेतत्करणस्य समर्थित्वा तुच-तदधिकतरमपि तन्नयुक्तं--नच-वाच्यं भाष्यकारादिवचनानि--अप्रमाणानि तदप्रमाण्येसर्वथा आगमानवबोधप्रसंगात् आवश्यकानुज्ञानेच चैत्यवंदनस्य अनुज्ञात्वात्आवश्यकांतः पातित्वात्-चैत्यवंदनसूत्रस्य-इति-अलंप्रसंगेन, (माइना,) अभयदेवमूरिजी महाराज चैत्यवंदनभाष्यकारको प्रमाणिक बतलाते है, अगर इनके वचनोंकों कोइ अप्रमाणिक कहे-तो वह आगमका (यानी) जैनसिद्धांतोका अनजानहै ऐसाजानना. क्यौं कि-आवश्यकके अनुज्ञानमें चैत्यवंदनकों अनुज्ञातजानना. चैत्यवंदनसूत्र आवश्यकके अंतःपाती है,-चैत्यवंदनमें चारस्तुतिकरना मध्यमभेदमें उपर बतलाचकेहै,-वैयावच्चगराणंका-पाठ-अगरमानतेहोतो चतुर्थस्तुति सबुतहइ,-जाये गौरहै नवअंगशास्त्रकी टीका बनानेवाले-महाराजश्रीअभयदेवमूरिजी-जिन-भाष्यकारको प्रमाणिक फरमावे, उनकों कौन अप्रमाणिक कहसकताहै ? तीनथुइपर एतकातरखनेवालोंकों

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