Book Title: Tristuti Paramarsh
Author(s): Shantivijay
Publisher: Jain Shwetambar Sangh
View full book text
________________
(त्रिस्तुतिपरामर्श.) पर्युषणनिर्णय पत्रिका पृष्ट (१६) पर बयानहै न्यायरत्ननाम धरातेहै वचन सब अन्यायके निकलतेहै,
(जवाब.) अन्यायके वचन उनकेहै-जो-प्रतिक्रमणमें-तीनथुइकरनेकी प्ररुपणा करतेहै. और पाठ उसका पंचांगीमें बतलासकतेनही. न्यायरत्नका कोइहर्फ बेंइन्साफकानही. अगर न्यायरत्नके वचन अन्यायकेहोते-तो-उनकेलेखोंकी तरक्की मुल्कोंमें क्योंहोती,? न्यायकेलेखलिखतेहै जभीतो लोग उनकों न्यायरलकहतेहै,
पर्युषण निर्णयपत्रिका पृष्ट (१७) पर तेहरीरहै, है ! सुज्ञपुरुषो !! तीर्थकरजेसेते यह निर्दोष बनता चाहतेहै.
(जवाब.) बेशक ! तीर्थकरदेवोको-आचार्योकों-और-साधुओकों जोकि-धर्मके नायब थे-बुराकहनेवाले लोग-बुराकहतेहीथे. दु. निया कभी एकरंग-न-हुइ-न-होगी. इस बातमें न्यायरत्नने कुछगलत नहीलिखाथा, जिसवातकों इन्साफ सचफरमाताहो उसकों कौन गलतकहसकताहै, ? सोचो ! अभव्यजीव-जोकि-धर्मसे ऐतराजथे तीर्थकरदेवोंकों तीर्थकरतरीके नही मानतेथे, उससे तीर्थंकरोंका क्या नुकशानथा, ? इसीतरह न्यायरत्नकों कोइ न्यायरत्न-न-समझेतो न्यायरत्नका क्या नुकशानहै, ? कुछभीनही,
पर्युषणनिर्यपत्रिका पृष्ट (१७) पर दलीलहै जो गीतार्थ-न-हो -और कहे-मैं-गीतार्थहु-वह-सित्तेरकोडाकोडी-सागरोपमकी स्थितिवाला महामोहनीकर्म उपार्जन करताहै,
(जवाब.) जो-गीतार्थहै-और-गीतार्थ कहलावे उनको कोई महामोहनीकर्म नहीबंधता, महामोहनीकर्म-उनकों-बंधताहै-जो-अधर्मकों धर्मकहे, शास्त्रकेहुकमको कुबुल-न-करे-और खिलाफ हुकमतीर्थकरगणधरकेनयामजहबजारीकरे,

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90