Book Title: Tristuti Paramarsh
Author(s): Shantivijay
Publisher: Jain Shwetambar Sangh
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२६
(त्रिस्तुतिपरामर्श.) हतेथे क्या उमदा नसीहत दिइहै जिसकी तारीफकरना दुसवारहै, हरशख्शको मुनासिबहै अपनीकारवाइपर ख्याल कर,-- - न्यायरत्न हमेशां न्यायरत्नही रहेगें, किसीके कहनेसे अन्यायरत्न नहीहोसकते, एकशख्शकी तरक्की देखकर दुसरा नाराजरहे यहभी एकजमानेकी खूबीहै, यादरखो ! न्यायरत्नके लेख हमेशां चलते रहेगें, किसीके लेखका जवाब-न-देवे. या-चूप रहे यह ख्वाबमेंभी-नही-समझना,-जो जिसतरह पेंश आयगा उसकेशाथ हम उसीतरह पेंश आयगें,
(१९) (बीचबयान-यांत्रिकविहारके,-)
प्रश्नोत्तरपत्रिका पृष्ट (१०) पर बयानहै संवत् (१९५९) में शांतिविजयजीने साधुओकों रैलमें बेठनेका मत चलाया,
(जवाब.) जब इरादेधर्मके नावमें बेठनेका जैनमुनिकों हुकमहै तो रैलभी एकतरहकी सवारीहै, नाव पानीमें चलतीहै रैल जमीनपर चलतीहै, बल्के ! जलमें कइतरहके जीव रहतेहै उतने जमीन पर नहीरहते,-अगरकोइ मुनि शौखसे-या-अपने आरामकेलिये रैल सवारी करतो बेशक ! पापहै, और उसकी मुमानियतभीहै, क्योंकि उसका इरादा धर्मपर नहीरहा.-मगर इरादे धर्मके तपसीलन धर्मकी तरक्कीकेलिये कोइ मुमानियत नही, आजकलके लोगबाग ब-सबबरैलके-अपना बतनछोडकर हजारांह कोशोंपर जायसेहै जहांकि-धर्मका नामनिशानभी नहीपाता, औरवहां कोइभी जैनमुनि उनकों जैनधर्मका रस्ताबतलानेवाले नही मिलते, बल्किन् ! धर्मको छोडकर अधर्मी होजातेहै, उसहालतमें कोइ जैनमुनि रैल-नाव-या-डोलीमें बैठकरवहां जावे और तालीमधर्मकीदेवेतो कोई नुकशाननही, बल्किन् ! फायदा

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