Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जिस प्रकार किसी भी चाण्डाल के स्पर्श करने पर स्पृश्यता दोष दुष्ट बनाता है उसी प्रकार हिंसादि पाप कार्यों में कोई एक भी कार्य दुर्गति का कारण हो सकता है । इसलिए आज मैं वैराग्य द्वारा प्राणातिपात आदि पांच पापों को गुरु महाराज के पास जाकर त्याग करूँगा । सन्ध्या के समय सूर्य जिस प्रकार स्व-तेज प्रग्नि में श्रारोपित कर देता है उसी प्रकार में स्वराज्य भार को कवचधर कुमार पर श्रारोपण करूँगा । तुम लोग कुमार के साथ भक्ति-भ का व्यवहार करना । वैसे तो तुम लोगों को यह परामर्श देना ही आवश्यक नहीं है कारण, कुलवानों का तो स्वभाव ही ऐसा होता है ।' (श्लोक १४६-१६२)
-भाव
मन्त्री बोले – 'हे स्वामी, मोक्ष से दूर व्यक्ति के मन में कभी ऐसी भावना का उदय नहीं होता । श्रापके पूर्वजों ने इन्द्र की तरह स्व-पराक्रम से जन्म से ही अखण्ड शासन द्वारा पृथ्वी स्व-अधीन रखी थी; किन्तु जब शक्ति अनिश्चित हो जाती तो वे थूक की तरह इस राज्य का परित्याग कर तीन पवित्र रत्नों को ग्रहण कर लेते थे । महाराज ने अपने भुजबल से इस पृथ्वी को धारण कर रखा है । हम तो केवल घर के भीतर जो कदली स्तम्भ होते हैं उसी प्रकार शोभित होते हैं । इस साम्राज्य को जिस प्रकार आपने कुल परम्परा से प्राप्त किया है उसी प्रकार अवदान (पराक्रम) सहित और निदान ( कारण रहित ) व्रत करना भी आपने परम्परा से ही प्राप्त किया है । आपका ही द्वितीय चैतन्य हो ऐसे राजकुमार इस पृथ्वी का भार कमल की तरह सहजता से उठाने में समर्थ हैं । आप यदि मोक्ष फलदायी दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं तो प्रानन्दपूर्वक ग्रहण करिए । परिपूर्ण न्याय निष्ठा सम्पन्न और सत्त्व एवं पराक्रम से सुशोभित राजकुमार द्वारा आपकी ही भाँति यह पृथ्वी राज्यवती हो यही कामना है ।' ( श्लोक १६३ - १७० ) मन्त्रियों के ऐसे आज्ञानुवर्ती वाक्यों को सुनकर राजा श्रानन्दित हुए मौर छड़ीदार द्वारा राजकुमार को बुला भेजा । मानो मूर्तिमान कामदेव हो ऐसे राजकुमार राजहंस की तरह चलते हुए वहाँ आए । साधारण अनुचर की भाँति करबद्ध होकर राजा को प्रणाम करते हुए यथोचित स्थान पर बैठ गए। अपनी अमृत रस तुल्य सार दृष्टि से मानो अभिसिंचित कर रहे हों इस प्रकार कुमार की ओर देखकर राजा बोले : ( श्लोक १७१-१७४)