Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[151 पृथ्वी आपके द्वारा राजन्वती है। अतः कोई किसी का स्वर्ण-रत्न नहीं ले सकता। धनिक लोग तो ग्रामों की राह पर भी घर की तरह ही निश्चिन्त होकर सो जाते हैं। स्व-उत्तमकुल की तरह कोई किसी को बन्धक रखी सम्पत्ति का उच्छेद नहीं कर सकता। ग्रामरक्षक स्वसन्तान की तरह लोगों की रक्षा करते हैं। अधिक धन मिल जाने पर शुल्क अधिकारी अपराध के प्रमाण से ही दण्ड की तरह योग्य कर वसूल करते हैं। उत्तम सिद्धान्तों को ग्रहण करने वाले शिष्य जैसे पुनः गुरु से विवाद नहीं करते उसी प्रकार भागीदार भाग के लिए पुनः कभी झगड़ा नहीं करते । प्रापके राज्य में सभी न्याय सम्पन्न हैं अतः पर-पत्नी को वे बहन, माँ और पुत्र-वधू की तरह देखते हैं। जिस प्रकार यतियों के उपाश्रय में वैर-वाणी नहीं रहती है उसी भाँति आपके राज्य में भी वैर-वाणी नहीं है। जिस भांति जल में ताप नहीं रहता उसी प्रकार प्रापकी सन्तुष्ट प्रजा में कोई आधि-व्याधि नहीं है। फिर आप तो साक्षात् कल्पवृक्ष हैं। अतः कोई दुःखी-दरिद्र नहीं है । यद्यपि संसार दुःखमय है; किन्तु मुझे किसी प्रकार का दु:ख नहीं है; किन्तु हाँ, इस गरीब पर एक दुःख पा पड़ा है।
(श्लोक ८०-८९) ___ इस पृथ्वी पर स्वर्ग-सा अवन्ती नामक एक वृहद् देश है। वह निर्दोष देश उद्याल, नदी एवं जलाशयों से अति मनोहर है। उस देश में अश्वभद्र नामक एक ग्राम है। वह ग्राम बड़े-बड़े सरोवर, कूप, वापिका और विचित्र आवासों से सुन्दर एवं पृथ्वी का तिलक रूप है। मैं उसी ग्राम में रहने वाला वेदाध्ययन-निरत शुद्ध ब्रह्मकुलजात एक अग्निहोत्री ब्राह्मण हूँ। एक बार मैं अपने प्राण-प्यारे पुत्र को उसकी माँ के पास छोड़कर विशेष विद्यार्जन के लिए दूर देश गया। एक दिन पढ़ते हुए अकारण पढ़ने में मुझे स्वाभाविक अरुचि हो गयी। उस समय यह बड़ा अपशकुन हुपा है सोचकर मैं व्याकुल हो उठा। उस अपशकून से भयभीत होकर जातिवन्त अश्व जिस प्रकार पूर्वाश्रित मन्दुरा में लौट जाता है उसी प्रकार मैं भी स्वग्राम को लौट गया। दूर से ही मैंने अपने घर को शोभाहीन देखा। सोचने लगा इसका क्या कारण है ? उसी समय मेरी बाई नांख फड़कने लगी। एक काक शुष्क वृक्ष की डाल पर बैठ कर कठोर स्वर में काँव-काव करने लगा।