Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सभासदों का तिरस्कार किया और बहुत समय तक आपको मोहाविष्ट रखा उसकी उपेक्षा करिए। कारण, तत्त्व दृष्टि से तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है ।
(श्लोक ३६६-३७३) ऐसा कहकर वह ऐन्द्रजालिक चुप हो गया तब परमार्थ के ज्ञाता राजा अमृत-सी मधुर-वाणी में बोले - हे विप्र, तुमने राजा और राज-सभासदों का तिरस्कार किया इसके लिए भयभीत मत बनो, कारण तुम मेरे महान् उपकारी हो। तुमने मुझे इन्द्रजाल दिखाकर यह समझा दिया है कि यह संसार इन्द्रजाल की तरह ही प्रसार है। जिस प्रकार तुमने जल प्रकट किया जो कि देखतेदेखते ही विलीन हो गया उसी प्रकार इस संसार के सारे पदार्थ भी प्रकट होकर नष्ट हो जाने वाले हैं। मोह, इस संसार में अब मोहग्रस्त होकर क्या रहना है ? इस प्रकार राजा ने संसार के अनेक दोषों को दिखाकर विप्र को कृतार्थ किया और तत्पश्चात् दीक्षा ग्रहण कर ली।
(श्लोक ३७४-३७८) ___यह कथा कहकर सुबुद्धि प्रधान ने कहा-हे प्रभो, इस संसार को उस राजा ने जैसा बताया है यह संसार वैसा ही है । इन्द्रजालसा ही है यह हम निश्चित रूप से मानते हैं। फिर आप तो सब कुछ जानते ही हैं कारण आप सर्वज्ञ कुल में चन्द्रमा तुल्य हैं।
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(श्लोक ३७९) तदुपरान्त वहस्पति से बुद्धिमान द्वितीय मंत्री शोक-शल्य दूर करने वाले वचनों में नप श्रेष्ठ से कहने लगे-बहुत दिनों पूर्व भरत क्षेत्र में एक नगर था। वहाँ विवेकादि गुणों की खान एक राजा थे। एक बार जब वे सभा में बैठे थे छड़ीदार ने कहा-एक व्यक्ति बाहर खड़ा है, वह स्वयं को माया प्रयोग में दक्ष मानता है। विशुद्ध बुद्धिमान राजा ने उसे राजसभा में आने की अनुमति नहीं दी। कारण, मायावी और सरल मनुष्यों में परस्पर शाश्वत स्वाभाविक शत्रुता की भाँति मित्रता नहीं होती। अन्दर जाने की अनुमति न पाकर वह मायावी खिन्न होकर चला गया।
(श्लोक ३८०-३८३) कुछ दिनों पश्चात् वही मायावी कामरूपी देव का रूप बनाकर आकाशपथ से सभा में पाया। इसके एक हाथ में तलवार तथा अन्य हाथ में बरछी थी। साथ में एक सुन्दर स्त्री भी थी।