Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 186
________________ [177 रब राजा सोचने लगे-जिस प्रकार इन्द्रजाल है उसी प्रकार तो यह भंसार है। कारण समस्त दृश्य वस्तुएं भी तो जल के बुदबुदे को तरह देखते-देखते विनष्ट हो जाती हैं। इस भांति अनेकविध संसार की असारता विचार कर विरक्त बने राजा ने राज्य परित्याग कर दीक्षा ग्रहण कर ली। (श्लोक ५२०-५२१) कथा सुनाने के पश्चात् मन्त्री बोले-हे प्रभो, यह संसार मेरी कथा के इन्द्रजाल-सा ही है । अतः आप शोक न कर प्रात्मसिद्धि के लिए प्रयत्न करें। (श्लोक ५२२) इस भाँति दोनों मन्त्रियों की बात सुनकर महापारण के स्थान पर जिस प्रकार महाप्राण प्रा जाता है उसी प्रकार चक्री के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। राजा सगर तत्त्वपूर्ण वाणी में बोलेतुमने मुझे उचित सुझाव दिया है। जीव स्वकर्मानुसार ही जीवित रहता है और मरता हैं। इस विषय में बालक, युवा व वृद्ध अवस्था की कोई सार्थकता नहीं है । बन्धु आदि का मिलन स्वप्न-सा ही है। लक्ष्मी हस्ती के कानों की तरह ही चञ्चल है । यौवन लक्ष्मी पर्वत से निर्गत नदी के समान प्रवाहित हो जाती है और जीवन तण-शीर्षस्थ जल-विन्दु-सा है। जब तक यौवन मरुभूमि की तरह उजड़ नहीं जाता, राक्षसी की भांति जीवन का अन्त करने वाली वृद्धावस्था उपस्थित नहीं हो जाती, सन्निपात की तरह इन्द्रियाँ विकल नहीं हो जाती और वैश्या की तरह सब कुछ लेकर लक्ष्मी चली नहीं जाती उसके पूर्व स्वयं ही इन सबका परित्याग कर दीक्षा ग्रहरण के उपाय से लब्ध स्वार्थ साधनों का प्रयास करना उचित है । जो व्यक्ति इस प्रसार शरीर से मोक्ष प्राप्त करता है वह मानों कांच के बदले मरिण, काक के बदले मयूर, कमल-नाल की माला के बदले रत्नहार, दूषित अन्न के बदले क्षीर, छाछ के बदले दध और गर्दभ के बदले अश्व खरीदता है। (श्लोक ५२३-५३२) जिस समय सगर राजा इस प्रकार बोल रहे थे तभी अष्टापद के निकट रहने वाले अनेक लोग राजद्वार पर आकर उपस्थित हुए और हमारी रक्षा करें, रक्षा करें कहते हुए उच्च स्वर में प्रार्थना करने लगे। राजा सगर ने द्वारपालों द्वारा उन्हें बुलवाया और पूछा कि क्या हुन्मा है ? तब वे ग्रामीण एक स्वर में बोले-प्रष्टापद के चारों ओर निर्मित परिखा को पूर्ण करने के लिए आपके पुत्रों ने दण्डरत्न से गंगा नदी का पानयन किया था। उस गंगा ने

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