Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 170
________________ [161 का प्रयोग करने के लिए मैं आपके पास आया | मैं मुहूर्त्त मात्र में उद्यान की रचना कर सकता हूँ । उसमें वसन्तादि ऋतुनों का प्रवर्तन और परिवर्तन करने में भी समर्थ हूँ । आकाश में गन्धर्व नगर के संगीत को प्रकट कर सकता हूं । क्षण भर में प्रदृश्य, दृश्य और अन्तर्धान हो सकता हूं। मैं कटहल की तरह खैर के अङ्गारों को खा सकता हूँ । तप्त लौह के तोमर को सुपारी की तरह चबा सकता हूँ । मैं जलचर, स्थलचर व खेचर के रूप एक प्रकार से या अनेक प्रकार से दूसरों की इच्छानुसार धारण कर सकता हूँ । मैं दूर से इच्छित पदार्थ ला सकता हूँ, पदार्थों का रङ्ग उसी क्षण परिवर्तित कर सकता हूं और आश्चर्यजनक अनेक कार्यों का कौशल मेरे अधिगत है | अतः हे राजन्, मेरी कला विद्या देखकर उसे सफल कीजिए । (श्लोक २४६-२५७) इस प्रकार गर्जना कर स्थिर हुए मेघ की भाँति उसके प्रतिज्ञा कर चुप होने पर राजा ने उससे कहा - हे कलाविद् पुरुष, जैसे कोई चुहिया पकड़ने के लिए पर्वत खोदता है, मछली पकड़ने के लिए सरोवर को शुष्क करता है, काष्ठ के लिए आम्रवन विनष्ट करता है, एक मुष्ठि चने के लिए चन्द्रकान्ता मणि भस्म करता है, घाव पर पट्टी बाँधने के लिए देवदूष्य वस्त्र फाड़ता है, कीलक के लिए देवालय तोड़ता है उसी भांति स्फटिक के समान शुष्क परमार्थ प्राप्त करने की योग्यता सम्पन्न तुम अपविद्या प्राप्त करने में श्वात्मा को मलिन करते हो । सन्निपाती रोगी की तरह तुम्हारी इन अपविद्यानों को देखने वाले की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है । तुम याचक हो अर्थात् इच्छानुसार धन मांगो। हमारे कुल में किसी की भी उचित प्रशाएँ तोड़ी नहीं जाती । ( श्लोक २५८-२६४) राजा के इस कठोर वचन को सुनकर वह अभिमानी व्यक्ति अपने क्रोध को छिपाते हुए बोल पड़ा- क्या मैं अन्धा हूं ? बधिर हूँ ? हाथ-पाँव विहीन या नपुंसक हूँ ? या अन्य किसी प्रकार से दया का पात्र हूँ जो अपने गुणों का परिचय दिए बिना, चमत्कार दिखाए बिना आपको कल्पवृक्ष मानकर दान ग्रहण करू ? प्रापको मेरा नमस्कार है । मैं यहाँ से अन्यत्र जा रहा हूं । ऐसा कहकर वह खड़ा हो गया । मुझ पर कृपणता का दोष आएगा इस भय से राजा ने ठहरने को कहा; किन्तु वह ठहरा नहीं, सभागृह से बाहर हो गया। सेवकों ने यह कहकर राजा की लज्जा दूर की - श्राप तो

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198