Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विदीर्ण कर, चक्र के साथ धावमान अश्वों के खुरों से उठी धूल से सम्पुट के पुट की तरह धरती और आकाश को एक कर, रथ और हस्तियों पर आन्दोलित ध्वजा के अग्रभाग में निर्मित पाठीन जातीय मकरादि से मानों प्रकाशरूपी महासमुद्र को जल-जन्तुमय कर, सातों दिशाओं से भरते मदजल की धारावृष्टि से सुशोभित हस्ती घटा के समूह में दुर्दिन दिखाकर, उत्साह से उल्लम्फनकार मानो स्वर्गारोहण की इच्छा रखता हो ऐसे कोटि-कोटि पदातिक सैन्य से पृथ्वी को चारों ओर से प्राच्छादित कर, सेनापति की तरह आगे चलते हुए असह्य प्रतापयुक्त और सर्वत्र प्रकुण्ठित शक्ति सम्पन्न चक्ररत्न से सुशोभित होकर, सेनानियों द्वारा धृत दण्डरत्न से विषम भूमि को हल द्वारा समान करने की तरह समतल और प्रतिदिन एक - एक योजन चलने के कारण भद्रद्वीप की तरह क्रीड़ा करते हुए पथ समाप्त कर इन्द्र के समान वे चक्रवर्ती कई दिनों के पश्चात् पूर्व दिशा में प्रवाहित गङ्गा नदी के ललाट तिलक के समान मगध देश में जा पहुँचे ।
( श्लोक ३३-५० )
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वहां सगर चक्री की आज्ञा से वर्द्धकीरत्न ने मानो अयोध्या की छोटी बहिन हो ऐसा स्कन्धावार डाला । आकाश पर्यन्त ऊँची और बड़ी-बड़ी हस्तीशाला से, बड़ी-बड़ी गुहाओं के समान हजारहजार अश्वशाला से विमानों जैसी अट्टालिकाओं से, मेघ- घटा से मण्डपों से मानो सांचे में ढालकर निर्मित किए हों ऐसे समान आकृति सम्पन्न दुकानों से और शृङ्गाटक - चौरस्तों आदि की रचना से राजमार्ग की स्थिति निर्देशकारी छावनी शोभित होने लगी । उसका विस्तार नौ योजन और लम्बाई बारह योजन थी । ( श्लोक ५१-५३)
वहां पौषधशाला में राजा ने मगध तीर्थकुमारदेव का मन ही मन ध्यान कर अष्टम तप किया और समस्त वेश-भूषा परित्याग कर दर्भ के आसन पर आश्रय लेकर, शस्त्ररहित होकर ब्रह्मचर्य का पालन कर एवं जागृत रहकर तीन दिन व्यतीत किए । अष्टम तप पूर्ण होने पर राजा पौषधगृह से निकले श्रीर पवित्र जल से स्नान किया । फिर रथ पर चढ़े । रथ पाण्डुवर्ण की ध्वजा से ढका था । वह अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से आवृत होने के कारण फेन और जल-जन्तु युक्त लग रहा था । उसके चारों श्रोर चार दिव्य घण्टे बँधे थे । उससे वह ऐसा लग रहा था जैसे चार चन्द्र
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