Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 129
________________ 120] किया। आनन्दित चक्री ने वरदामपति की भांति ही प्रभासपति के लिए प्रष्ठाह्निका महोत्सव किया। (श्लोक १२४-१२६) वहाँ से चक्र के पीछे पश्चात्-प्रत्यावर्तकारी समुद्र की तरह चक्री स्व-सैन्य सहित सिन्धु के दक्षिण तट से पूर्वाभिमुख होकर चलने लगे। राह में सिन्धुदेवी के मन्दिर के निकट उन्होंने आकाश में एक मुहूर्त में निर्मित गन्धर्व नगरी की तरह ही अपनी छावनी डाली और सिन्धुदेवी को स्मरण कर अष्टम तप किया। अतः सिन्धुदेवी का रत्नासन कम्पित हरा। देवी ने अवधिज्ञान से चक्री का प्रागमन जाना और तत्क्षण भक्तिपरायण वह देवी उपहार लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुई। उसने आकाश से ही निधि की तरह एक हजार आठ रत्न कुम्भ, मणिरत्न जड़ित दो विचित्र भद्रासन, बाजूबन्द, कड़े आदि रत्नालङ्कार और देवदूष्य वस्त्र चक्रवर्ती को उपहार में दिए । फिर बोली-हे नरदेव ! आपके देश में अवस्थान करने वाली मैं आपकी दासी की भाँति रहेगी। प्राप मुझे प्राज्ञा दें। (श्लोक १२७-१३३) अमूल्य तुल्य वाणी से देवी का सत्कार कर चक्री ने उन्हें विदा दी और अष्टम तप का पारणा कर पूर्व की तरह ही सिन्धु देवी के लिए अष्टाह्निका महोत्सव किया। कारण, महा ऋद्धि सम्पन्न महात्माओं के लिए पद-पद पर उत्सव होता है। (श्लोक १३४-१३५) स्व बन्धन-शाला से जिस प्रकार हस्ती निकलता है उसी प्रकार लक्ष्मी की छाया-स्वरूप चक्र आयुधशाला से निकल कर उत्तर-पूर्व कोण में चलने लगा। उसके पीछे-पीछे चलते हुए चक्री कई दिनों के पश्चात् वैताढय पर्वत के दक्षिण अोर उपस्थित हुए एवं नगरी की तरह ही छावनी डालकर मन-ही-मन वेताढयकुमार देव का स्मरण करते हुए अष्टम तप किया । अष्टम तप पूर्ण होने पर वैताढयकुमार देव का प्रासन कम्पित हुा । उन्होंने अवधिज्ञान से जाना कि भरतार्द्ध की सीमा पर चक्रवर्ती पाए हैं। नगर के निकट आकर उन्होंने आकाश में स्थित रहकर ही उन्हें दिव्यरत्न, वीरासन, भद्रासन और देवदूष्य वस्त्र उपहार में दिए । फिर प्रसन्न होकर स्वस्तिवाचक की भांति आशीर्वाद दिया-प्राप चिरंजीवी हों, सुखी हों, चिरकाल पर्यन्त विजयी हों। चक्रवर्ती ने अपने प्रिय मित्र की भाँति ही उनसे ससम्मान बातचीत कर उन्हें विदा किया

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