Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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पर्वत की तरह चित्रकूट नामक एक पर्वत है। वह ऋद्धि-सम्पन्न पर्वत वलयाकृति, नौ योजन ऊँचा, पचास योजन विस्तारयुक्त
और बड़ा ही दुर्गम है। उस पर मैंने सुवर्ण गृह और तोरण युक्त लंका नामक नगरी बसाई है। वहाँ से छह योजन नीचे पृथ्वी में शुद्ध स्फटिक रत्नों का गढ़ व विभिन्न प्रकार के रत्नों के गृह युक्त एक सौ पच्चीस योजन लम्बी और चौड़ी पाताल लंका नामक अत्यंत प्राचीन और दुर्गम नगरी है। वह नगरी भी मेरे अधिकार में है। हे वत्स, तुम इन दोनों नगरियों को ग्रहण करो और इनके राजा बनकर तीर्थंकर भगवान के दर्शनों का फल अभी ही प्राप्त करो।
. (श्लोक २७-३७) ऐसा कहकर राक्षसपति ने नौ माणिक्य रचित एक वृहद् हार और राक्षसी-विद्या उसे दे दी। धनवाहन भी उसी मुहूर्त में भगवान् अजितनाथ को नमस्कार कर राक्षस द्वीप गया और दोनों लङ्कामों का राजा बन गया। राक्षस-द्वीप और राक्षसी-विद्या के कारण धनवाहन का वंश तभी से राक्षसवंश के नाम से अभिहित होने लगा।
(श्लोक ३८-४०) वहाँ से विहार कर सर्वज्ञ प्रभु अन्यत्र चले गए। सुरेन्द्र एवं सगरादि भी अपने-अपने स्थान को लौट गए। (श्लोक ४१)
अब राजा सगर चौसठ हजार स्त्रियों के साथ रतिसागर में निमग्न होकर इन्द्र की भाँति विलास करने लगे। स्त्रीरत्न के अलावा अन्य स्त्रियों के साथ सम्भोग करते समय उन्हें जो ग्लानि होती वह स्त्रीरत्न के सम्भोग से उसी प्रकार दूर हो जाती जिस प्रकार दक्षिण पवन से पथिकों की क्लान्ति दूर हो जाती है। इस भाँति हमेशा विषय सुख भोग करते हुए राजा सगर के जह नुकुमार आदि साठ हजार पुत्र हुए। उद्यानपालिकानों द्वारा पालित वृक्ष जिस प्रकार बढ़ता है उसी प्रकार धात्री माताओं द्वारा पालित सगर के पुत्र भी क्रमशः बड़े होने लगे। वे चांद की तरह समस्त कलाओं को ग्रहण कर शरीर की लक्ष्मी-रूप लता के उपवन-रूप यौवन को प्राप्त हुए। वे अन्य लोगों को अपनी अस्त्र-विद्या की कुशलता दिखाने लगे और न्यूनाधिक जानने की इच्छा से अन्यों के शस्त्रकौशल देखने लगे। वे कलाभिज्ञ साहसी अश्वों को नचाने की क्रीड़ा में अश्वों को समुद्र के प्रावर्त की तरह खेल ही खेल में घुमा कर सीधा कर देते । देवताओं की शक्ति को भी उल्लङ्घन करने