Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जीता था अतः सभी उनकी प्राज्ञा को वहन करते थे। इन्द्र के लिए जैसे मेरुपर्वत है उसी प्रकार चक्री के लिए आश्चर्य का स्थानभूत यह अष्टापद पर्वत क्रीड़ा गिरि था। इस अष्टापद पर्वत पर ऋषभदेव भगवान् ने दस हजार साधुओं के साथ निर्वाण को प्राप्त किया था। ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात् भरत राजा ने वहाँ रत्नमय पाषाणों का सिंहनिषद्या नामक चैत्य निर्माण करवाया। उसमें उन्होंने भगवान् ऋषभ और उनके परवर्ती २३ तीर्थङ्करों की निर्दोष रत्नों की प्रतिमाएं स्थापित की। प्रत्येक प्रतिमा स्व-स्व देहाकृति, संस्थान, वर्ण और चिह्नयुक्त है। उन्होंने उन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा इसी चैत्य में चारण मुनियों द्वारा करवाई थीं। उन्होंने बाहुबलि आदि ९९ भाइयों की चरण-पादुका और मूर्तियां यहाँ स्थापित करवायीं । यहाँ भगवान् ऋषभ का समवसरण भी लगा था। उस समय उन्होंने भावी तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती वासुदेव, प्रतिवासुदेव और बलभद्रों का वर्णन किया था। इस पर्वत के चारों प्रोर भरत ने आठ-पाठ सोपान निर्मित करवाए इसीलिए इसका नाम अष्टापद है।
(श्लोक ९६-१०५) यह सुनकर सभी कुमार प्रानन्दित हुए। यह पर्वत उनके पूर्व पुरुषों का है यह जान कर वे परिवार सहित उस पर चढ़े और सिंहनिषद्या चैत्य में गए। दूर से दर्शन होते ही उन्होंने प्रानन्दित मन से तीर्थङ्कर ऋषभ को प्रणाम किया। अजित स्वामी एवं अन्य तीर्थङ्गरों को भी उन्होंने समान श्रद्धा से प्रणाम किया। कारण, वे गर्भ में आने से पहले ही श्रावक थे। मन्त्र द्वारा आकृष्ट कर लाए हों ऐसे तत्काल लाए शुद्ध गन्धोदक से कुमारों ने जिन-प्रतिमा को स्नान करवाया। कोई कलश को जलपूर्ण कर रहा था, कोई प्रभु पर जल डाल रहा था, कोई रिक्त कलश लिए जा रहा था। कोई धूपदानी में उत्तम धूप दे रहा था, कोई शङ्खादि वाद्य बजा रहा था। उस समय बड़े वेग से गिराए स्नान के गन्धोदक के कारण अष्टापद पर्वत द्विगुरण झरना युक्त हो गया था। प्रक्षालन के पश्चात् उन लोगों ने देवदूष्य वस्त्र से जौहरी की तरह भगवान् की रत्ज-प्रतिमाओं को पौंछा। तदुपरान्त उन भक्तिमानों ने दासी की तरह स्वेच्छा से प्रतिमा पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया और विचित्र पुष्पमालाओं से, दिव्य वस्त्रों से, मनोहर रत्नालङ्कारों से प्रतिमा का पूजन किया एवं इन्द्र के रूप को भी विडम्बित