Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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की तरह हाथ जोड़कर उसने चक्रवर्ती से कहा - इस भरत क्षेत्र के पूर्वादिक प्रान्त में मैं आपके सामन्त की तरह रहूंगा ।
( श्लोक ७४-७८ ) चक्रवर्ती ने उन्हें भृत्य रूप में स्वीकार किया और दुर्गपाल की तरह सत्कार कर विदा किया। तदुपरान्त उदीयमान सूर्य की तरह अपने तेज से दिक्समूह को उद्भासित कर चक्रवर्ती समुद्र से बाहर निकले और स्कन्धावार को लौट आए । राजानों में गजेन्द्र की तरह महाराज ने स्नान और देव पूजा कर परिवार सहित पारना किया। तत्पश्चात् वहाँ मगध तीर्थाधिपति का श्रष्टाह्निका महोत्सव किया। कारण, सेवक के सम्मान में स्वामी ही वद्धित होते हैं । ( श्लोक ७९-८२ ) सर्व दिग्विजयी लक्ष्मी को अर्पण करने में न्यासरूप चक्ररत्न दक्षिण दिशा में चला । स्व-सैन्य से पर्वत सहित पृथ्वी को चलायमान करते हुए चक्रवर्ती दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्यमार्ग में चक्र के पीछे-पीछे चलने लगे । समस्त दिशाओं को विजय करने दृढ़-प्रतिज्ञ राजा सगर पथ में कितने ही राजाओं को पवन जिस प्रकार वृक्ष को उखाड़ फेंकता है उसी प्रकार राज सिंहासन से उतारकर, कितनों को शालिवृक्ष की तरह पुनः राज-सिंहासन पर बैठाकर कितनों को कीर्तिस्तम्भ की तरह नूतन राज्य देकर, नदी का ज्वार जैसे वेतसलता को प्रानमित करता है उसी प्रकार कितने ही राजा के मस्तक को आनमित कर, किसी की अंगुली काटकर, किसी से रत्नदण्ड ग्रहरण कर, किसी को हस्ती विहीन कर, किसी को छत्र-हीन कर क्रमश: वे दक्षिण समुद्र के तट पर जा पहुंचे । वहाँ हस्ती से उतरकर मुहूर्त मात्र में निर्मित स्कन्धावार में इस प्रकार रहने लगे जिस प्रकार इन्द्र विमान में रहता है ।
( श्लोक ८३-८९ ) वहाँ से चक्री पौषधशाला में गए और अष्टम तप कर पौषध में वहाँ के अधिष्ठायक देवता वरदाम का ध्यान करने लगे । अष्टम
भक्त के पश्चात् पौषधव्रत समापन कर मानो सूर्यमण्डल से लाया गया हो ऐसे रथ पर चढ़े। जिस प्रकार तक्र मन्थन करने वाला मन्थन - दण्ड कौ दधि के मध्य प्रवेश कराता है उसी प्रकार रथ को नाभि पर्यन्त समुद्र जल में प्रवेश करवाया । फिर धनुष की प्रत्यंचा बजाई । भय से व्याकुल कान झुकाएं जलचर प्राणियों ने उस