Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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तीर से राधावेध, शब्दवेध, जल के भीतर रखा लक्ष्य वेध प्रौर वेध कर प्रभु को अपनी शर-विद्या की निपुणता का परिचय देते । ढाल और तलवार धारण कर वे आकाश के मध्य मार्ग स्थित चन्द्रमा की तरह फलक में अर्थात् रंगभूमि में प्रवेश कर अपनी पादगलि अर्थात् प्रसिविद्या की निपुणता दिखाते । वे प्राकाश में चमकती विद्युत रेखा का भ्रम उत्पन्न करने वाली वर्शा, शक्ति व शर्बला को प्रत्यन्त वेग से घुमाते । नर्तक जिस प्रकार नृत्य दिखाता है उसी प्रकार सर्व विषयों में निपुरण सगर विभिन्न प्रकार से छुरी चलाना दिखाते। इसी प्रकार अन्य अस्त्रों के व्यवहार चातुर्य, गुरुभक्ति से या उपदेश ग्रहण करने के लिए अजित स्वामी को दिखाते | अजित स्वामी सगर को उसी उसी विषय का उपदेश देते जिनका उनमें प्रभाव था । इस भांति उत्तम पुरुष के शिक्षक भी उत्तम होते हैं। इसी तरह दोनों कुमारों ने स्व-योग्य क्रीड़ा कौतुक करते हुए पथिक जिस प्रकार गांव की सीमा का प्रतिक्रमण करता है उन्होंने अपने बाल्यकाल का प्रतिक्रमण किया । ( श्लोक ३९-५६) समचतुस्र संस्थान और वज्रऋषभ नाराच संहनन से सुशोभित, स्वर्ण-सी कान्ति से सम्पन्न साढ़े चार सौ धनुष दीर्घ, श्रीवत्स चिह्न से जिनका वक्ष अलंकृत है और सुन्दर मुकुट धारण किए हैं ऐसे दोनों कुमार चन्द्र जिस प्रकार क्रान्तिवर्द्धनकारी शरद् ऋतु को प्राप्त होता है उसी प्रकार शरीर की सम्पत्ति को बढ़ाने वाली यौवनावस्था को प्राप्त हुए । यमुना नदी की तरंगों के समान कुटिल और श्याम केशदाम एवं अष्टमी के चन्द्र-से ललाट से वे विशेष सुशोभित होने लगे । उनके दोनों कपोल इस प्रकार शोभान्वित होते मानो वे दोनों स्वर्ण-दर्पण हों । उनके स्निग्ध श्रीर मधुर नेत्र नील कमल के पत्र की तरह झलमल करते । उनकी सुन्दर नासिका, दृष्टि रूपी दो सरोवरों के मध्य पाल के समान परिदृष्ट होने लगी । उनके युग्म प्रोष्ठ इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो युग्म बिम्बफल हों । उनके सुन्दर श्रावर्तयुक्त दोनों कान शुक्ति की तरह मनोहर लगने लगे । तीस रेखाओं से पवित्र कण्ठरूपी कंदल पंख की तरह सुशोभित होने लगे । हस्ती के कुम्भ स्थलों की तरह उनके उन्नत स्कन्ध थे । दीर्घ और परिपुष्ट बाहु सर्पराज - सी प्रतीत होने लगी । वक्षस्थल स्वर्ण पर्वत की शिला की हो गए । नाभि मन की तरह गम्भीर लगने लगी । कटिदेश वज्र
तरह मनोहर हो