Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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में उसी नाम से परिचित सर्वांग सुन्दर मनुष्य रहते हैं। केवल एकोरू द्वीप में ही नहीं अन्य समस्त अन्तर्वीपों में उन्हीं द्वीपों के नाम से परिचित मनुष्य रहते हैं। अग्निकोण आदि तीन अवशिष्ट विदिशाओं में इतने ही ऊँचे, इतने ही लम्बे और चौड़े प्राभाषिक, लांगलिक और वषाणिक नाम के क्रमानुसार द्वीप है । तदुपरान्त भू-भाग से चार सौ योजन जाने पर लवण-समुद्र में इतने ही लम्बे-चौड़े ईशान आदि विदिशाओं में क्रमानुसार हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कूलीकर्ण नामक चार अन्तर्वीप हैं। उसके बाद भू-भाग से पाँच सौ योजन जाने पर इतने ही लम्बे-चौड़े ईशान आदि विदिशामों में क्रमानुसार आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख और गजमुख नामक चार अन्तर्वीप है। तदुपरान्त भू-भाग से छः सौ योजन जाने पर इतने ही लम्बे-चौड़े अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख अन्तर्वीप हैं। इससे आगे सात सौ योजन जाने पर इतना ही लम्बा, इतना ही चौड़ा, अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, हस्तिकर्ण और कर्णप्रावरण नामक अन्तर्वीप है। इससे आगे पाठ सौ योजन पर इतना ही लम्बा-चौड़ा उल्कामुख, विद्य तजिह्वा, मेषमुख और विद्य तदंत नामक चार अन्तर्वीप ईशानादि विदिशामों में क्रमानुसार अवस्थित है। उसके बाद जगती से लवणोदधि में नौ सौ योजन जाने पर उतनी ही लम्बाई-चौड़ाई वाला गूढ़दन्त, धनदन्त, श्रेष्ठदन्त और शुद्धदन्त नामक चार अन्तर्वीप ईशानादि विदिशाओं में क्रम से हैं। इस भाँति शिखरी पर भी अट्ठाईस द्वीप हैं । सब मिलाकर छप्पन अन्तर्वीप हैं। (श्लोक ६८४-७००)
मानुषोत्तर पर्वत के पश्चात् है द्वितीय पुष्करार्द्ध । पुष्कराद्ध के चारों ओर समग्र द्वीपों से दुगुना पुष्करोदक समुद्र है। फिर है वारुणीवर नामक द्वीप और समुद्र । इसके बाद है क्षीरवर नामक द्वीप और समुद्र । और उसके आगे घृतवर नामक द्वीप और समुद्र । फिर है इक्षुवर नामक द्वीप और समुद्र । फिर स्वर्ग के समान अष्टम नन्दीश्वर द्वीप जो वृत्त और विस्तार में एक सौ त्रेसठ कोटि चौरासी लाख योजन है। यह द्वीप अनेक उद्यानों से पूर्ण और देवताओं की क्रीड़ा-भूमि तुल्य है । प्रभु पूजा के उत्साही देवगणों के आने-जाने से यह द्वीप और भी सुन्दर हो गया है। इसके मध्य भाग में पूर्वादि की ओर अनुक्रम से अंजन जैसा वर्णयुक्त अंजन पर्वत है। वह पर्वत नीचे की ओर दस हजार योजन से