Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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किया । फिर ऐसी यात्रा का बार-बार भावते हुए जिस प्रकार वे अपने-अपने प्रकार चले गए ।
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अवसर मिले ऐसी भावना स्थान से आए थे उसी ( श्लोक ८३१-८४० ) सगर चक्रवर्ती भी भगवान को वन्दना कर लक्ष्मी के संकेतस्थान रूप अपनी अयोध्या नगरी को लौट गए । महायक्ष नामक चतुर्मुख यक्ष अजितनाथ स्वामी के तीर्थ के अधिष्ठायक हुए । उनका रंग श्याम, वाहन हाथी था । उनके दाहिनी प्रोर के चार हाथ में वरद, मुद्गर, अक्षसूत्र और पाश था एवं बाएं चार हाथ में बिजौरा, अभय, अंकुश प्रोर शक्ति थी । प्रभु के शासन में अजितबला नामक चतुर्भुजा देवी - अधिष्ठायका बनी । उनका रंग सुवर्ण-सा था । उनके दाहिनी ओर के हाथों में वरद और पाश था । बायीं ओर के हाथों में बिजोस और अंकुश था । वे लोहासन पर बैठी थीं । ' (श्लोक ८४१-४६) चौंतीस अतिशयों से सुशोभित भगवान सिंहसेनादि गणधरों सहित पृथ्वी पर विचरण करने लगे । प्रत्येक ग्राम, नगर श्रीर आकार में विहार करते हुए भव्य प्राणियों को उपदेश देते हुए एक बार प्रभु कोशाम्बी नगरी के निकट पहुंचे । कोशाम्बी के ईशान कोण में पूर्व की भाँति ही देवतानों ने एक योजन क्षेत्र में प्रभु के लिए समोसरण की रचना की । अतः अशोक वृक्ष के नीचे सिंहासन पर बैठकर जगत्पति ने सुरासुर एवं मनुष्यों की पर्षदा में धर्मदेशना प्रारम्भ की। उसी समय एक ब्राह्मण दम्पती आए और त्रिजगत के गुरु को प्रदक्षिणा देकर यथायोग्य स्थान पर बैठ गए । (श्लोक ८४७-५१) देशना की समाप्ति पर वह ब्राह्मण उठा और हाथ जोड़कर प्रभु से पूछने लगा - हे भगवन्, यह ऐसा क्यों ? (श्लोक ८५२) भगवान ने जबाव दिया - यह सम्यक्त्व की महिमा है वह समस्त अनर्थ को रोकने का एवं समस्त कार्य सिद्ध
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करने का प्रबल कारण है | सम्यक्त्व से सारे बैर भाव उसी तरह शान्त हो जाते हैं जैसे वर्षा से दावाग्नि शान्त हो जाती है । सारी व्याधियाँ उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे गरुड़ द्वारा सर्प नष्ट हो जाते हैं । दुष्कर्म इस भाँति गल जाते हैं जैसे सूर्यताप से हिम गल जाता है । क्षरणमात्र में मनोवांछित कार्य उसी प्रकार सिद्ध हो जाते है जैसे चिन्तामरिण रत्न से सिद्ध होते है । श्रेष्ठ हाथी जिस प्रकार
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