Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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अंधिक है । शर्कराप्रभा के भी वलय प्रमाण छोड़कर तृतीय बालुकाप्रभा भूमि के चारों ओर इसी प्रकार की अधिकता है । इसी भांति पूर्व वलयों के प्रमाण में बाद के वलयों के प्रमाण में सप्तम भूमि के वलय पर्यन्त वृद्धि होती रहती है। इन घनाब्धि, महावात और तनुवात के मण्डल की उच्चता अपनी-अपनी पृथ्वी की उच्चता के समान है। इस प्रकार सात पृथ्वी को घनाब्धि प्रादि धारण करते हैं। इनमें पाप कर्मों के भोग के लिए नरकावास निर्मित हुए हैं। इन नरक भूमियों में जैसे-जैसे नीचे उतरते जाएँ वैसे-वैसे यातना, रोग, शरीर, आयुष्य, लेश्या, दुःख और भयादि क्रमशः बढ़ते जाते हैं। यह बात निश्चय रूप में समझना उचित है।
(श्लोक ४९१-५०३) रत्नप्रभा का विस्तार एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसमें एक हजार योजन ऊपर और नीचे छोड़ देने पर जो अवशिष्ट भाग रहता है उनमें भवनपति देवों का निवास है। इसके उत्तर और दक्षिण में जिस प्रकार राजपथ के दोनों ओर श्रेणीबद्ध अट्टालिकाएं रहती हैं उसी प्रकार भवनपतियों के भवन हैं
और वे वहीं रहते हैं । उन भवनों में मुकुट-मणियों के चिह्न युक्त असुरकुमार, सर्प-फणों के चिह्न युक्त नागकुमार, वज्र चिह्न युक्त विद्युतकुमार, गरुड़ चिह्न युक्त सुपर्णकुमार, घट चिह्न युक्त अग्निकुमार, अश्व चिह्न युक्त वायुकुमार, वर्द्धमानक चिह्न युक्त स्तनितकुमार, मकर चिह्न युक्त उदधिकुमार, केशरी सिंह चिह्न युक्तं द्वीपकुमार और हस्ती चिह्न युक्त दिक्कुमार निवासं करते हैं। अंसुरकुमार के चमर और वली, नागकुमार के धरण और भूतानन्द, विद्युतकुमार के हरि और हरिसह, सुपर्णकुमार के वेणुदेव और वेणुदारी, अग्निकुमार के अग्निशिख और अग्निमानव, वायुकुमार के वेलम्व व प्रभंजन, स्तनितकुमार के सुघोष और महाघोष, उदधिकुमार के जलकान्त और जलप्रभ, द्वीपकुमार के पूर्ण और प्रवशिष्ट एवं दिक्कुमार के अमित और अमितवाहन नामक दो-दो इन्द्र हैं।
(श्लोक ५०४-५१४) रत्नप्रभा भूमि के अवशिष्ट एक हजार योजन भूमि पर ऊपर और नीचे की ओर एक-एक सौ योजन छोड़कर मध्य के पाठ सौ योजन के दक्षिणोत्तर श्रेणी के मध्य आठ प्रकार के व्यंतर देव रहते हैं । इन मैं पिशाच व्यंतर कंदब वृक्ष के, भूत व्यंतर