Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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[67 __ इस भांति इन्द्र स्वामी के चरण-कमलों से पवित्र अयोध्या को स्वर्ग से भी अच्छा समझकर अल्प समय में ही वहां आ पहुंचे। उसी समयं अन्य सुरेन्द्र और असुरेन्द्र भी प्रभु के दीक्षा-महोत्सव से अवगत होकर वहां पाएं। अच्युतादि सुरेन्द्र और संगर आदि नरेन्द्रों ने अनुक्रम से वहीं प्रभु का दीक्षा महोत्सव किया। तदुपरान्त मणिकार जैसे माणिक्य को परिष्कृत करता है उसी भांति इन्द्र ने देवदूष्य वस्त्र से प्रभु की स्नान-जल से सिंक्त देह को पोंछा और गन्धकार की तरह स्व-हाथों से सुन्दर अंगराग से प्रभु के शरीर को चचित किया। धर्म भावना रूप धन से धनी इन्द्र ने प्रभु को देवदूष्य वस्त्र पहनाया। मुकुट, कुण्डल, हार, बाजुबन्द, कड़े आदि अनेक अलंकारों से उन्हें विभूषित किया । फूलों की दिव्य मालाओं से जिनके केश सुशोभित हैं, तृतीय नेत्र की तरह जिनके ललाट पर तिलक शोभित है, देवियां, दानवियां और मानवियां विचित्र भाषा में जिनके मधुर मङ्गलगीत गा रही हैं, चारण भाट की तरह सुरेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र जिनकी स्तुति कर रहे हैं, सुर्वर्ण धूपदानी से व्यन्तर देव जिनके सम्मुख धूपं कर रहे हैं, पद्मदह में हिमवन्त पर्वत की तरह जिनके मस्तक पर श्वेत छत्र सुशोभित हो रहा है, चामरधारियों जिनके दोनों ओर चँवर डुला रही हैं, विनम्र छड़ीदार की तरह इन्द्र जिन्हें हाथों का सहारा दे रहे हैं, हर्ष और शोक से विमूढ बने सगर राजा अनुकूल पवन से बरसने वाली वर्षा की तरह अंधं प्रवाहित करते जिनके पीछे चल रहे थे-ऐसे प्रभु स्थल कमल के समान चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए हजारों व्यक्तियों द्वारा उत्तेलित सुप्रभा नामक शिविका पर आरूढ़ हुए। उस शिविका को पहले मनुष्यों ने, बाद में विद्याधरों ने और अन्त में देवताओं ने उठाया। इससे वह आकाश मार्ग में भ्रमण करने वाले ग्रह का भ्रम उत्पन्न कर रही थी। ऊपर उठी हई और जिसमें एक भी धक्का नहीं लग रहा हो ऐसी वह चलमान शिविका समुद्र में चलते हुए जहाज-सी शोभित हो रही थी। शिविका चलने पर उसके मध्य सिंहासन पर बैठे प्रभु पर ईशानेन्द्र और सौधर्मेन्द्र चवर वीजन करने लगे। वर जिस प्रकार कन्या का पाणिग्रहण करने को उत्सुक होता है उसी भांति दीक्षा ग्रहण करने को उत्सुक प्रभु विनीता नगरी के मध्य मार्ग में चलने लगे। उस समय चलने के कारण जिनके कर्णाभरण हिल रहे थे, वक्षों के हार डल रहे थे