Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जाता है उसे हेतुवाद प्राज्ञा कहा जाता है। इन दोनों का समान होना प्रमाण है। दोषरहित कारण के प्रारम्भ के लक्षण प्रमाणित होते हैं । राग, द्वेष और मोह को दोष कहा जाता है । अर्हत् में ये दोष नहीं होते। इसीलिए दोषरहित कारण से सम्भूत अर्हत् वाक्य प्रमाण हैं। वे वाक्य नय और प्रमाण से सिद्ध, पूर्वापर विरोध रहित, अन्य बलवान शासन से भी अप्रतिक्षेप्य अर्थात अकाट्य है। अंग-उपांग-प्रकीर्ण इत्यादि बहु शास्त्र रूपी नदियों के लिए समुद्र रूप, अनेक अतिशयों के साम्राज्य लक्ष्मी से सुशोभित, अभव्य पुरुषों के लिए दुर्लभ, भव्य पुरुषों के लिए शीघ्र सुलभ, गणि पिटक परम्परा में रक्षित, देव और दानवों की नित्य स्तुति करने लायक हैं। ऐसे पागम वचनों की आज्ञा का पालम्बन कर स्यादवाद और न्याय के योग से द्रव्य पर्यायरूप से नित्य-अनित्य वस्तु में इसी तरह स्वरूप और पररूप से सत्-असत् प्रकार से रहे पदार्थ में जो स्थिर विश्वास करना है उसे प्राज्ञा विचय ध्यान कहते हैं।
(श्लोक ४४१-४४९) (२) अपाय विचय-जो जिन-मार्ग को स्पर्श नहीं करते, जो परमात्मा को नहीं मानते या आगामी काल अर्थात् भविष्य का विचार नहीं करते ऐसे व्यक्तियों के हजार अपाय (विघ्न) आते हैं। माया या मोह रूप अन्धकार में जिनका चित्त परवश है अर्थात् जो अज्ञान के अन्धकार के कारण देख नहीं सकते वे प्राणी क्याक्या पाप नहीं करते और उन पापों के कारण क्या-क्या कष्ट नहीं पाते। ऐसे प्राणियों को विचार करना चाहिए कि नारक, तियंच
और मनुष्य जीवन में मैंने जो-जो दुःख भोगे हैं उन सबका कारण मेरा दुष्ट प्रमाद है। परम बोधि बीज को प्राप्त कर मन, वचन
और काया द्वारा कृत चेष्टानों से मैंने मस्तक पर अग्नि प्रज्वलित की है। मुक्ति मार्ग पर चलना मेरे हाथ में था; किन्तु मैंने कूमार्ग को खोजा और उस पर चला। इस प्रकार मैंने स्वयं ही निज आत्मा को कष्टों में डाल दिया है। जिस प्रकार उत्कृष्ट राज्य पाने पर भी मूर्ख भिक्षा के लिए निकलता है उसी प्रकार मोक्ष साम्राज्य अधिकार में होने पर भी मैं अपनी आत्मा को ससार भ्रमरण करवा रहा हूं। इस भांति राग, द्वेष और मोह से उत्पन्न अपायों का विचार ही अपाय विचय नामक द्वितीय धर्म ध्यान है।
(श्लोक ४५०-४५६)