Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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राज-सिंहासन पर बैठाया है, हमारा परित्याग नहीं किया है ।
( श्लोक १६३ - १७७)
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जिस प्रकार वर्षा के मेघ वृष्टि करते रहते हैं उसी प्रकार अजितनाथ स्वामी ने दान देना प्रारम्भ कर दिया । उसी समय तिर्यंक, जृम्भक देव इन्द्र की प्राज्ञा एवं कुबेर की प्रेरणा से नष्ट, भ्रष्ट, स्वामीहीन, चिह्नित, पर्वत गुफा स्थित श्मशान से या अन्य किसी स्थान से गड़ा हुप्रा धन लाकर चौरास्ते में, चबूतरों पर, कोषशाला और यातायात के स्थान पर रखने लगे । अजित स्वामी ने नगर में ढोल बजवा कर प्रचारित करवा दिया, जो-जो धनप्रार्थी हैं वे श्राकर इच्छानुरूप धन ले जाएँ। फिर सूर्योदय से लेकर भोजन के समय तक अजित स्वामी दान देने लगे एवं जिसे जितना चाहिए उसे उतना दे देते । नित्य एक कोटि आठ लक्ष स्वर्ण मुद्राएँ वे दान करते थे । इस प्रकार एक वर्ष में उन्होंने ८ कोटि ८० लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान दीं । काल का सामर्थ्य एवं प्रभु के प्रभाव से याचकों की इच्छानुसार धन दिया जाता था; किन्तु वे लोग प्रयोजन से अधिक धन नहीं लेते थे । श्रचिन्त्य महिमा सम्पन्न और दयारूपी धन से धनी प्रभु ने एक वर्ष पर्यन्त पृथ्वी को चिन्तामणि रत्न की तरह धन दान से तृप्त किया । (श्लोक १७८ - १८८)
वार्षिक दान समाप्त होने पर इन्द्र का आसन कम्पित हुआ । इससे उन्होंने अवधिज्ञान द्वारा प्रभु का दीक्षा समय श्रवगत किया । वे भगवान् का निष्क्रमणोत्सव मनाने के लिए सामानिक देवों सहित प्रभु के पास जाने को रवाना हुए। उस समय ऐसा लगा जैसे इन्द्र ने चलते हुए विमान से दिक्-समूहों में मण्डप की रचना की हो, हस्तियों से मानो उड़ते हुए पर्वतों की रचना की हो, तुरंगों से आकाश में समुद्र तरंगों की सृष्टि की हो, प्रस्खलित गति सम्पन्न रथ से सूर्य - रथ को परास्त किया हो, घुंघरू युक्त माला पहिने दिग्गजों की कर्णताल का (कानों के हिलने से होने वाला शब्द) अनुकरण कर ध्वजा अंकुश प्राकाश को तिलकित कर रहे हों । कुछ देव गान्धार स्वर में उत्तम गीत गा रहे थे, कुछ देव नवीन रचित काव्यों से उनकी स्तुति कर रहे थे, कुछ देव मुख पर वस्त्र रखे बीच-बीच में उनसे बातचीत कर रहे थे एवं कुछ देव उन्हें पूर्व तीर्थङ्कर का चरित्र स्मरण करवा रहे थे । (श्लोक १८९-१९५)