Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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के राज्य के प्रारम्भ में तुमने रत्नादि से इस नगरी को पूर्ण किया था उसी प्रकार पूर्ण करो। वसन्त ऋतु जैसे नवपल्लवादि से उद्यान को नवीन कर देती है उसी भाँति नवीन गृह अट्टालिकामों से इस नगरी को नवीन करो और मेघ जैसे जल से पृथ्वी को पूर्ण कर देता है उसी प्रकार स्वर्ण धन-धान्य और वस्त्र से इस नगरी को चारों प्रोर से भर दो।'
(श्लोक ५३-५८) ऐसा कहकर शक एवं अन्य इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप गए। वहाँ उन्होंने शाश्वत जिन प्रतिमाओं का अष्टाह्निक महोत्सव किया । तदुपरान्त वहाँ से सब अपने-अपने स्थान को लौट गए। कुबेर भी इन्द्र की आज्ञानुसार विनीता नगरी को नवीन कर अलकापुरी लौट गए। मानो मेरु पर्वत के शिखर हों ऐसी स्वर्णराशि से, मानो वैताढ्य पर्वत की चूलिका हो ऐसी रौप्य राशि से, मानो रत्नाकर का सर्वस्व हो ऐसे रत्न समूहों से, मानो जगत के हर्ष हों ऐसे सत्रह प्रकार के धान्य से, मानो कल्पवृक्ष से लाए गए हों ऐसे वस्त्र से, मानो ज्योतिष्क देवताओं के रथ हों ऐसे अति सुन्दर वाहन से, प्रत्येक घर, प्रत्येक दूकान, प्रत्येक चौक परिपूर्ण किए । इस प्रकार ऐश्वर्य से पूरित की गयी वह नगरी अलकापुरी-सी सुशोभित होने लगी।
(श्लोक ५९-६४) उसी रात सुमित्रविजय की स्त्री वैजयन्ती ने जिसका दूसरा नाम यशोमती भी था उन्हीं चौदह स्वप्नों को देखा । कुमुदिनी की भाँति हर्षयुक्त विजया और वैजयन्ती ने शेष रात्रि जागते व्यतीत की। सुबह होने पर स्वामिनी विजया ने अपने स्वप्नों की बात महाराज जितशत्रु से कही और वैजयन्ती ने सुमित्रविजय को। विजया देवी के स्वप्नों को सरल मन से विचार कर राजा जितशत्रु बोले-'महादेवी, गुणों से जिस प्रकार यश की वृद्धि होती है, विशेष ज्ञान से सम्पत्ति का लाभ होता है, सूर्य किरणों से जैसे जगत में आलोक प्रसारित होता है उसी प्रकार इस स्वप्न से यह सूचित होता है कि तुम्हें उत्तम पुत्र का लाभ होगा।' (श्लोक ६५-७०)
इस प्रकार जब राजा उत्तम स्वप्न का फल बता रहे थे तभी प्रतिहारी ने पाकर सुमित्रविजय के प्रागमन की खबर दी। सुमित्रविजय वहाँ आकर पंचांगों से भूमि स्पर्श कर देव की तरह तरह राजा को नमस्कार कर यथायोग्य आसन ग्रहण किया। कुछ क्षण पश्चात् भक्ति सहित युक्तकार ब्रोकर कुमार बोले