Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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द्वीप में भरतखण्ड की विनीता नगरी में आए और विमान सहित स्वामी की परिक्रमा दे रहे हों इस भाव से परिक्रमा दी । कारण, प्रभु जैसे स्वामी जहां रहते हैं वहां की भूमि भी वन्दनीय हो जाती है । फिर सामन्त जिस प्रकार राज प्रासाद में प्रवेश करते समय निज वाहन को एक ओर खड़ा कर देते हैं उसी भांति विमान को ईशान कोण में स्थिर किया और कुलीन दास की तरह निज देह को संकुचित कर भक्ति सहित सूतिकागृह में प्रवेश किया ।
( श्लोक ३२०-३३१) स्वनेत्रों को धन्य मानकर इन्द्र ने तीर्थङ्कर और माता को देखने मात्र से प्रणाम किया। फिर दोनों को तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार वन्दना कर करबद्ध होकर इस प्रकार बोले- निज उदर में रत्न धारण करने वाली, विश्व को पवित्र करने वाली एवं जगद्दीपक पुत्र की जन्मदात्री, हे जगन्माता ! मैं प्रापको प्रणाम करता हूं। माँ, आप ही धन्य हैं क्योंकि आपने कल्पवृक्ष उत्पन्न करने वाली पृथ्वी की तरह द्वितीय तीर्थङ्कर को जन्म दिया है । माँ, मैं सौधर्म देवलोक का अधिपति हूं । प्रभु का जन्मोत्सव करने के लिए यहां आया हूं । अतः आप मुझे देखकर डरें नहीं ।
( श्लोक ३३२-३३६) ऐसा कहकर माता को श्रवस्वापिनी निद्रा में निद्रित कर तीर्थङ्कर की एक अन्य प्रकृति निर्मित कर उनके पास सुला दी । इन्द्र ने पांच रूप धारण किए। काम रूप एक होकर भी अनेक रूप धारण कर सकते हैं। एक रूप से पुलकित बने भक्ति से मन की तरह शरीर को भी शुद्ध कर, हे भगवन्, श्राज्ञा दीजिए, ऐसा कहकर गोशीर्ष रस में लिप्त निज हाथों से प्रभु को ग्रहण किया । द्वितीय रूप से पीछे खड़े होकर पर्वत शिखर स्थित पूर्णिमा के चन्द्र का भ्रम उत्पन्नकारी सुन्दर छत्र प्रभु के मस्तक के ऊपर लगाया । अन्य दो रूपों से दोनों प्रोर खड़े होकर मानो साक्षात् पुण्य समूह हों ऐसे दो चंवर हाथ में धारण किए । अन्तिम पांचवें रूप से प्रतिहार की तरह वज्र धारण किया। बार-बार ग्रीवा को घुमाकर वे प्रभु को देखते हुए आगे-आगे चलने लगे । भ्रमर जिस प्रकार कमल को घेर लेता है उसी प्रकार सामानिक पर्षदा के देवगरण त्रयस्त्रिंश देवता और अन्य सभी देवों ने प्रभु को घेर लिया । फिर इन्द्र प्रभु का जन्मोत्सव करने की इच्छा से उन्हें हाथों में उठा