Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira Author(s): Virendra Prasad Jain Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission View full book textPage 8
________________ तथापि उनके प्रवर्णनीय गुणों की पोर इंगित करता है:असितगिरि समं स्यात्कज्जलं सिन्धुपावे. सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्रम:। लिखति यदि गृहीत्वा, शारदा, सर्वकालं, ... तदपि तव गुणानां वीर पारं न याति ॥ ऐसी दशा में मैंने जो यह तीर्थकर भगवान महावीर .का पावन जीवन चरित छन्दबद्ध करने का प्रति साहस किया वह भी सूर्य को दोपक दिखाने के सदृश है । उसका पूर्ण होना तो असम्भव है । यथार्थ बात यह है कि भगवान महावीर का समय जीवन ही वह शतपत्रीय मादर्श काव्य-कमल है जिसको सुरमि प्रसाद से अनुप्रेरित हो हर कोई. अपनी प्राकृति, कुसुमांजलि अर्पित कर सकता है। मैं भी उस महामानव के प्रसाधारण व्यक्तित्व से माकर्षित हो भक्तिवश कुछ रच सका. तो इसमें पाश्चर्य हो क्या ? 'भक्तामर स्तोत्र' में प्राचार्य मानतुङ्ग ने सोहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कतुं स्तवं विगतशक्तिरपि-प्रवृत्तः।x . xxx xxx . xxx अल्पप तंबतपता परिहास ' धामः, ... स्वद्भक्तिरेष मुखरी कुरुते बलान्मा। •ई-पकपी बाबात में मेक पर्वत जितनी रोषणाई सबल • संसार के सारे लों की मनों से पृथ्वी मापक पर बाता . रेखदेव जिते रहने पर भी... महावीर के सम्पूर्व गुणों न कहीं होता। .. : xसीम शक्तिहीर पुतिकर, क्तिनावपरकम नहिं . * सुपरसन को पाग, मुन तब भक्ति पुलाचे पम । कहा: -Page Navigation
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