Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 14
________________ MARA (3) श्लोकवार्तिकालंकार हिंदी - टीका ( पू. पं. माणिकचंदजीकी रची टीका ) सहित सात खण्डों में विभाजित, कुल मिलाकर ३६२६ पृष्ठों में प्रकाशित है । हर एक खंण्डमें संपादकीय, प्राक्कथन, तथा परिशिष्ट आदि विषयही करीब १५० पृष्ठों में निर्देशित हैं । पहिले दो-चार साल तक अजमेरके श्रीमान माननीय " धर्मवीर " रा. ब. भागचंन्दजी सोनी इस ग्रंथमालाके अध्यक्षपद पर रहे, और ग्रन्थमाला की प्रगति हरतरहका 'योगदान' दतें हुए ग्रन्थप्रकाशन के कार्योंमे मुख्यपात्र बने रहे । इसके पहिले के पांच खण्डो के 'समर्पण' क्रमसे १) परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज २) स सेठ हुकमचंदजी ३) तपोनिधि आचार्य श्री नेमिसागर महाराज ४) आचार्य श्री वीरसागर महाराज तथा ५) तपोनिधि आचार्य श्री शिवसागर महाराजोंके करकमलों में किये गये । छठे खण्डके प्रकाशन में सुलतानपुर के निवासी ला० जिनेश्वरप्रसादजीकी धर्मपत्नी श्रीमती जयवन्ती देवीजीकी धनसहायता इस अवसरपर स्मरणीय है । ' श्लोकवार्तिक' ग्रन्थ के टीकाकार श्री पं माणिकचंदजीं कौन्देय, न्यायाचार्य के प्रति और इस महान ग्रन्थ के बारे में महान सन्त श्री गणशप्रसादजी वर्णी श्री इन्द्रलालजी शास्त्री न्यायालकार, वादीभकेसरी, विद्यावारिधि, पं. मक्खनलालजी शास्त्री विद्वद्वर श्री पं. कैलाशचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री इन विद्वत समाज अग्रेसरोंद्वारा किये गये प्रशंसापर वक्तव्य तथा पहलेके चार खण्डोंके सम्पादकीय में प्रकटित विचार धारासे जो बातें व्यक्त की गई हैं, वही इस महती कृति के महत्वको बतानेवाली प्रत्यक्ष निदर्शनि है । दिवंगत सुप्रसिद्ध विद्वान पण्डित वर्धमान शास्त्री विद्यावाचस्पति' व्याख्यान केसरी, समाजरत्न, धर्मार, विद्याकार न्याय -काव्यतीर्थ, सात खण्डों में प्रकाशित इस ग्रन्थरत्नके सम्पादक और प्रकाशक रहे । तथा कुन्थुसागर ग्रन्थमालाके गौरवमंत्री भी थे। इनके नामके साथ लगी उपाधियां इनके जीवनकी महती साधना, धर्म एवं सामाजिक सेवाओ में तत्परता, आदि सद्गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। यही इनके व्यक्तित्व की परिचायिकाएं हैं । पहिले के छहो खण्डों के सम्पादकीय इनकी अनुपम प्रतिभा तथा कार्यदक्षताका द्योतक दर्पण है । इस सातवे खण्डकी छपाई यद्यपि सन्मान्य पण्डितजी के नेतृत्वमे हुआ है, फिर भी इस खण्ड मे स्वर्गवासी शास्त्रीजी के सम्पादकीयका अभाव मनमे खटकता है । क्योंकि उनकी पाण्डित्यभरी लेखनी द्वारा लिखे जानेवाले सम्पादकीय, प्राक्कथन एवं परिशिष्टादि विशिष्ट लाभोंसे जिज्ञासू पाठकगण इसबार वंचित रहे हैं । - यह सातवा खण्ड तत्वार्थ सूत्रके आठवे अध्यायके प्रथम सूत्रसे आरम्भ होता है, और दसवे अध्यायान्तमें परिसमाप्त होता । इसके साथ ही इस ' श्लोकवार्तिकार' का प्रकाशनभी पूर्ण हो जाता है । ' श्री कुन्थुसागर ग्रन्थमाला' द्वारा अब तक प्रकाशित उद्ग्रन्थोंकी संख्या ही स्वर्गीय शास्त्रीजी के धार्मिक एवं सामाजिक सेवामनोभावको उंगलियोंसे निर्देश, कर रही है। पू. स्व. शास्त्री महोदयका वह महोद्देश, आगे उनके सुपुत्र द्वारा पूर्ण हो । यही शुभभावना यहांपर हम व्यक्त करते हैं ।

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