________________ भाष्य, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक व्याख्यान और श्लोकवार्तिकभाष्य। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने अपने इस ग्रन्थ में केवल एक ही जगह (पृ. 32) पर 'तत्त्वार्थसूत्रकर्ता का गृद्धपिच्छाचार्य नाम से उल्लेख किया है और सर्वत्र 'सूत्रकार' जैसे आदरवाची नाम से ही उनका उल्लेख हुआ है, उमास्वामी नाम का कथन ही नहीं किया। महर्षि विद्यानन्द ने इस ग्रन्थ में प्रशस्त तर्क-वितर्क व विचारणा के द्वारा सिद्धान्त समन्वित तत्त्वों की प्रतिष्ठापना की है। विशेषता यह है कि ग्रन्थ का प्रमेय सिद्धान्त होने पर भी इसे न्यायशास्त्र की कसौटी पर कस कर समुज्वल रूप से प्रस्तुत किया है। डॉ. दरबारीलाल कोठिया के शब्दों में- “जैनदर्शन के प्राणभूत ग्रन्थों में यह प्रथम कोटि का ग्रन्थरत्न है। विद्यानन्द ने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध इतर तार्किकों के जैनदर्शन पर किये गये आक्षेपों का सबल जवाब ही नहीं दिया किन्तु जैनदर्शन का मस्तक भी उन्नत किया है। हमें तो भारतीय दर्शन साहित्य में ऐसा एक भी ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता जो श्लोकवार्तिक की समता कर सके।"१ . मुद्रित प्रतियाँ : (1) इस ग्रन्थ (मूलसंस्कृत) का प्रथम मुद्रण 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम्' नाम से श्रावण शुक्ला 7 वीरनिर्वाण सं. 2444 विक्रम सं. 1975 में श्रेष्ठिवर्य रामचन्द्रनाथारंगजी ने अपनी गांधीनाथारंग जैनग्रन्थमाला मुम्बई से निर्णयसागर प्रेस से छपवाकर पं. मनोहरलाल न्यायशास्त्री के सम्पादकत्व में प्रकाशित कराया था, जो अब उपलब्ध नहीं है। यह 22430 पेजी आकार में है। कुल पृष्ठ संख्या 8+512 है, पक्की जिल्द है। इसके सम्पादनसंशोधन के सम्बन्ध में पं. मनोहरलालजी ने लिखा है- “एतद् ग्रन्थसंशोधनकार्ये पुस्तकमेकमतीवप्राचीनं जयपुरनगराल्लब्धं, द्वितीयं मुम्बईपट्टनस्थं किंचिदशुद्धप्रायं / तयोः साहाय्येन स्वज्ञानावरणक्षयोपशमानुसारेण च संशोधितं।" परन्तु इन प्रतियों/पुस्तकों का परिचय नहीं दिया गया है। .. (2) यही ग्रन्थ आचार्य कुन्थुसागर ग्रन्थमाला सोलापुर से भी हिन्दी अनुवाद एवं विवेचन सहित सात खण्डों में प्रकाशित हुआ है। सम्पादक प्रकाशक और मुद्रक हैं पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री। टीकाकार हैं- पं. माणिकचन्दजी कौंदेय न्यायाचार्य। प्रथम खण्डं दिसम्बर सन् 1949 में प्रकाशित हुआ था और सातवें खण्ड में प्रकाशन वर्ष 1984 छपा है। 204308 पेजी आकार में इन सात खण्डों की कुल पृष्ठ संख्या 74+4326+69-4469 है। पक्की जिल्द है। 'तत्त्वार्थचिन्तामणि' नामक सवा लाख श्लोक प्रमाण यह टीका सरल, सुन्दर तथा प्रामाणिक है। तत्त्वार्थसूत्र के मर्म को समझने के लिए यह महान् ग्रन्थ है। हिन्दी टीकाकार विद्वान् पण्डितजी ने महान् ग्रंथ को सर्वसाधारण के .लिए भी सहजवेद्य बना दिया है। आपने स्थान-स्थान पर तात्त्विक गुत्थियों को सुलझाया है। कई स्थानों पर सुन्दर उदाहरण देते हुए विषय को स्पष्ट किया है, कितने ही स्थानों में विषय को विशद करके समझाया है जिसने स्वतंत्र विवेचन का स्वरूप धारण कर लिया है। पण्डितजी ने टीका के प्रारम्भ और अन्त में संस्कृत श्लोकों की स्वतंत्र रचना भी की है। परन्तु न तो टीकाकार ने और न सम्पादक महोदय ने इस बात का कहीं उल्लेख किया है कि मूल संस्कृत पाठ का आधार कौनसी प्रतियाँ रही हैं? अनुमान है पूर्व मुद्रित प्रति का ही इस टीका में उपयोग किया गया अमुद्रित पाण्डुलिपि : पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ने अपने अनुवाद में गांधीनाथारंग जैनग्रन्थमाला से प्रकाशित प्रति का ही उपयोग किया है। जब आपका यह अनुवाद मेरे पास आया तभी मुझे ज्ञात हुआ कि जैन जगत् के अनन्य विद्वान् पं. मोतीचन्द जी कोठारी (फलटण) भी इसके प्रकाशन का उद्योग कर रहे थे। पूरी पाण्डुलिपि तैयार कर उन्होंने संस्कृत में टिप्पण लिखे, फिर इसका मुद्रण भी प्रारम्भ करवाया। संस्कृत मूल और पण्डितजी लिखित 1. आप्तपरीक्षा : प्रस्तावना, पृ.६७।