Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 8
________________ तत्त्वार्थ सूत्र ७ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य ॥ २९ ॥ अर्थ - मनः पर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान का अनंतवाँ भाग होता है । हैं। सर्व द्रव्य - पर्यायेषु केवलस्य ॥३०॥ अर्थ - सभी द्रव्य के सभी पर्याय केवलज्ञान के विषय एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥३१॥ अर्थ - एक साथ एक जीव को एक से लेकर चार ज्ञान विकल्प से अनियत रूप से हो सकते हैं । मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥३२॥ अर्थ - मति, श्रुत और अवधि ये तीनों विपर्यय (अज्ञान रूप) भी हैं । सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरून्मत्तवत् ॥३३॥ अर्थ - सत् (वास्तविक) और असत् (काल्पनिक) पदार्थों में भेद नहीं करने से यदृच्छोपलब्ध (चाहे जैसा मानने के कारण) मिथ्यादृष्टि का ज्ञान उन्मत्त की तरह अज्ञानरूप ही होता है। नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र - शब्दा नयाः ॥३४॥ अर्थ - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द ये पाँच नय हैं । आद्य-शब्दौ द्वि-त्रि भेदौ ॥ ३५ ॥ अर्थ - आद्य अर्थात् प्रथम नैगम नय के दो और शब्द नय के तीन भेद हैं।

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