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तत्त्वार्थ सूत्र
४३ आठवाँ अध्याय मिथ्यादर्शना-ऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगाबन्धहेतवः ॥१॥
अर्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - ये पाँच कर्मबंध के हेतु हैं।
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ॥२॥
अर्थ - जीव कषाय सहित होने से कर्म के योग्य कार्मण वर्गणारूप पुद्गलों को ग्रहण करता है।
स बन्धः ॥३॥ अर्थ - वह बंध कहलाता है। प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशास्तद्विधयः ॥४॥
अर्थ - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश – ये बंध के चार प्रकार हैं।
आद्योज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीया-ऽऽयुष्कनाम-गोत्रा-ऽऽन्तरायाः ॥५॥
अर्थ - प्रथम प्रकृति बन्ध आठ प्रकार के हैं - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र तथा अन्तराय ।
पंच-नव-द्वयष्टाविंशति-चतु-द्विचत्वारिंशद्-द्विपंचभेदाः यथाक्रमम् ॥६॥
अर्थ – ज्ञानावरणादि आठ प्रकृतियों के क्रमशः पाँच,