Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 57
________________ तत्त्वार्थ सूत्र एका-ऽऽश्रये सवितर्के पूर्वे ॥४३॥ अर्थ - पहले के दो शुक्लध्यान एकाश्रित और सवितर्क अर्थात् पूर्वगत श्रुत का आलम्बन लेने वाले होते हैं। अविचारं द्वितीयं ॥४४॥ अर्थ - दूसरा ध्यान अविचार है । वितर्कःश्रुतम् ॥४५॥ अर्थ – वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान है । विचारोऽर्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रान्तिः ॥४६॥ अर्थ - अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योग की संक्रान्ति (परिवर्तन) को विचार कहते हैं । सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरता-ऽनन्तवियोजकदर्शनमोह क्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोहजिनाः क्रमशो-ऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४७॥ ___अर्थ - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत (साधु), अनंतानुबंधीवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, मोहउपशमक, उपशान्तमोह, मोहक्षपक, क्षीणमोह एवं जिन – ये दस स्थान अनुक्रम से पूर्व पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुणा निर्जरा वाले होते हैं। पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्थाः ॥४८॥ अर्थ - प्रस्तुत सूत्र में निर्ग्रन्थों के पाँच प्रकार बताये हैं।

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