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तत्त्वार्थ सूत्र आर्त्त-ममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३१॥
अर्थ – अनिष्ट पदार्थ / व्यक्ति का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना प्रथम आर्त्तध्यान है ।
वेदनायाश्च ॥३२॥
अर्थ – वेदना होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना द्वितीय आर्तध्यान है।
विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥३३॥
अर्थ - इष्ट पदार्थ का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत् चिन्ता करना तीसरा आर्तध्यान है।
निदानं च ॥३४॥
अर्थ - धर्माराधना के फलस्वरूप सांसारिक वस्तु की प्राप्ति के लिए सतत् चिंतन करना चतुर्थ आर्त्तध्यान है।
तदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् ॥३५॥
अर्थ - यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत तक होता है।
हिंसा-ऽनृत-स्तेय-विषयसंरक्षणेभ्यो-रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३६॥ __ अर्थ - हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण - इन चार का सतत् चिन्तन करना रौद्रध्यान है, जो अविरत और देशविरत जीवों को होता है।