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तत्त्वार्थ सूत्र
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आज्ञा-ऽपाय-विपाक-संस्थान-विचयायधर्म
मप्रमत्त संयतस्य ॥३७॥
अर्थ - आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनका विचार करने के लिए चित्त को एकाग्र करना धर्मध्यान है जो अप्रमत्तसंयत को होता है ।
उपशांत-क्षीणकषाययोश्च ॥ ३८ ॥
अर्थ - उपशांत कषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान वाले जीवों को भी धर्मध्यान सम्भव है ।
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शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ॥३९॥
अर्थ - प्रारम्भ के दो शुक्ल ध्यान उपशांत मोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में होते हैं। ये दोनों शुक्ल ध्यान पूर्वधर को होते हैं ।
परे केवलिनः ॥४०॥
अर्थ - अगले दो शुक्लध्यान केवलियों को होते हैं । पृथक्त्वैकत्ववितर्क-सूक्ष्मक्रिया - ऽप्रतिपातिव्युपरत क्रियाऽनिवृत्तीनि ॥४१॥
अर्थ- शुक्लध्यान के चार भेद हैं- पृथक्त्ववितर्क (सविचार), एकत्व वितर्क (अविचार), सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति और व्युपरत क्रिया - अनिवृत्ति । तत्त्र्येक-काययोगा- योगानाम् ॥४२॥
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अर्थ- शुक्लध्यान के चार भेद क्रमशः तीन योगवाले को, एक योगवाले को, काय योगवाले को और योगरहित को होते हैं ।