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तत्त्वार्थ सूत्र
आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्षक-ग्लान-गण-कुलसंघ-साधु- समनोज्ञानाम् ॥२४॥ ___अर्थ - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु एवं समनोज्ञ (साधर्मिक) इनकी सेवाशुश्रुषा करना वैयावृत्य तप है।
वाचना-पृच्छना-ऽनुप्रेक्षा-ऽऽम्नाय-धर्मोपदेशाः ॥२५॥
अर्थ - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय एवं धर्मोपदेश - ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय हैं ।
बाह्या-ऽऽभ्यन्तरोपध्योः ॥२६॥
अर्थ - बाह्य और आभ्यंतर उपधि का त्याग - ये दो भेद व्युत्सर्ग तप के हैं।
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता-निरोधो ध्यानम् ॥२७॥
अर्थ - उत्तम संहनन वालों का एक विषय में चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान है।
आमुहूर्तात् ॥२८॥ अर्थ - यह अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है। आर्त-रौद्र-धर्म-शुक्लानि ॥२९॥
अर्थ - ध्यान के चार भेद हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ।
परे मोक्षहेतु ॥३०॥ अर्थ - परे अर्थात् अंत के दो ध्यान मोक्ष के कारण हैं।