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________________ ५३ तत्त्वार्थ सूत्र आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्षक-ग्लान-गण-कुलसंघ-साधु- समनोज्ञानाम् ॥२४॥ ___अर्थ - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु एवं समनोज्ञ (साधर्मिक) इनकी सेवाशुश्रुषा करना वैयावृत्य तप है। वाचना-पृच्छना-ऽनुप्रेक्षा-ऽऽम्नाय-धर्मोपदेशाः ॥२५॥ अर्थ - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय एवं धर्मोपदेश - ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय हैं । बाह्या-ऽऽभ्यन्तरोपध्योः ॥२६॥ अर्थ - बाह्य और आभ्यंतर उपधि का त्याग - ये दो भेद व्युत्सर्ग तप के हैं। उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता-निरोधो ध्यानम् ॥२७॥ अर्थ - उत्तम संहनन वालों का एक विषय में चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान है। आमुहूर्तात् ॥२८॥ अर्थ - यह अंतर्मुहूर्त पर्यन्त रहता है। आर्त-रौद्र-धर्म-शुक्लानि ॥२९॥ अर्थ - ध्यान के चार भेद हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । परे मोक्षहेतु ॥३०॥ अर्थ - परे अर्थात् अंत के दो ध्यान मोक्ष के कारण हैं।
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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