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छठा अध्याय
काय - वाङ्मनः कर्म योगः ॥ १ ॥
अर्थ - काया, वचन और मन की क्रिया योग है ।
स आस्रवः ॥२॥
अर्थ - वह (योग ही) आस्रव है ।
तत्त्वार्थ सूत्र
शुभः पुण्यस्य ॥३॥
अर्थ – शुभ योग पुण्य कर्म का आस्रव है ।
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अशुभः पापस्य ॥४॥
अर्थ - अशुभ योग पाप कर्म का आस्रव है । सकषाया- कषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥५॥
अर्थ - कषाय सहित आत्मा का योग साम्परायिक आस्रव तथा कषाय रहित आत्मा का योग ईर्यापथ आस्रव होता है ।
अव्रत-कषायेन्द्रिय-क्रिया: पंच- चतुः- पंच पंचविंशति संख्या पूर्वस्य भेदाः ॥ ६ ॥
अर्थ - पूर्व के अर्थात् साम्परायिक आस्रव के अव्रत, कषाय, इन्द्रिय, और क्रिया
ये (चार) भेद हैं तथा
क्रमानुसार इनकी संख्या पाँच, चार, पाँच और पच्चीस है । तीव्र - मन्द - ज्ञाता - ऽज्ञात भाव - वीर्याऽधिकरण विशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥७॥
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अर्थ - तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य विशेष और अधिकरण विशेष के भेद से उसकी (आस्रव की) विशेषता होती है ।