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तत्त्वार्थ सूत्र
अर्थ – दर्शविशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शील और व्रतों में अनतिचार, ज्ञानोपयोग, संवेग की निरंतरता, यथाशक्ति त्याग और तप, संघ एवं साधुओं की समाधि एवं सेवा शुश्रुषा, अरिहंत आचार्य, उपाध्याय (बहुश्रुत) एवं शास्त्र की भक्ति, आवश्यक में अहानि, मोक्षमार्ग की प्रभावना एवं साधर्मिकों के प्रति वात्सल्य ये सब तीर्थंकर नाम कर्म के बंध हेतु हैं ।
पराऽऽत्म-निंदा - प्रशंसे सदसद् गुणा - ऽऽच्छादनोद् भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥२४॥
अर्थ – परनिन्दा, स्वप्रशंसा, परगुण-आच्छादन एवं असदगुणों का उद्भावन करने से नीच गोत्र कर्म का आस्रव होता है ।
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तद्विपर्ययो नी - वृर्त्यनुत्सेक चोत्तरस्य ॥ २५ ॥ अर्थ इसके विपरीत स्वनिन्दा, परप्रशंसा, स्वगुणाच्छादन, स्वदोषाभिव्यक्ति, विनम्रता और अभिमान रहितता से उच्च गोत्रकर्म का आस्रव होता है ।
विघ्नकरण-मन्तरायस्य ॥२६॥
अर्थ - दानादि में विघ्न उपस्थित करने से अंतराय कर्म का आस्रव होता है
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