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तत्त्वार्थ सूत्र
अविनयी या अयोग्य के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना
( चिन्तन करना) ।
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जगत्काय स्वभावौ च संवेग - वैराग्यार्थम् ॥७॥ अर्थ - संवेग और वैराग्य की पुष्टि के लिए जगत् (संसार) और शरीर के यथार्थ स्वरूप का विचार करना ।
प्रमत्तयोगात् प्राण- व्यपरोपणं हिंसा ॥८ ॥
अर्थ - प्रमादपूर्वक जीवों के प्राणों का घात करना हिंसा है। असदभिधान-मनृतम् ॥९॥
अर्थ - असत् बोलना अनृत (असत्य) है।
अदत्तादानं स्तेयं ॥१०॥
अर्थ - स्वामी द्वारा बिना दिये हुए किसी वस्तु को लेना चोरी है ।
मैथुनमब्रह्म ॥११॥
अर्थ - मैथुन सेवन करना अब्रह्म है
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मूर्च्छा परिग्रहः ॥१२॥
अर्थ - वस्तुओं में ममत्व भाव (मूर्च्छा) रखना
परिग्रह है ।
निः शल्योव्रती ॥१३॥
अर्थ - जो शल्य रहित है वह व्रती है ।
अगार्यनगारश्च ॥ १४ ॥
अर्थ - व्रती के अगारी और अनगार ये दो भेद हैं । अणुव्रतो - Sगारी ॥ १५ ॥