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________________ तत्त्वार्थ सूत्र अविनयी या अयोग्य के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना ( चिन्तन करना) । ३८ जगत्काय स्वभावौ च संवेग - वैराग्यार्थम् ॥७॥ अर्थ - संवेग और वैराग्य की पुष्टि के लिए जगत् (संसार) और शरीर के यथार्थ स्वरूप का विचार करना । प्रमत्तयोगात् प्राण- व्यपरोपणं हिंसा ॥८ ॥ अर्थ - प्रमादपूर्वक जीवों के प्राणों का घात करना हिंसा है। असदभिधान-मनृतम् ॥९॥ अर्थ - असत् बोलना अनृत (असत्य) है। अदत्तादानं स्तेयं ॥१०॥ अर्थ - स्वामी द्वारा बिना दिये हुए किसी वस्तु को लेना चोरी है । मैथुनमब्रह्म ॥११॥ अर्थ - मैथुन सेवन करना अब्रह्म है I मूर्च्छा परिग्रहः ॥१२॥ अर्थ - वस्तुओं में ममत्व भाव (मूर्च्छा) रखना परिग्रह है । निः शल्योव्रती ॥१३॥ अर्थ - जो शल्य रहित है वह व्रती है । अगार्यनगारश्च ॥ १४ ॥ अर्थ - व्रती के अगारी और अनगार ये दो भेद हैं । अणुव्रतो - Sगारी ॥ १५ ॥
SR No.034154
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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