Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 34
________________ तत्त्वार्थ सूत्र ३३ अधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥८ ॥ अर्थ - अधिकरण के दो भेद हैं- जीव और अजीव । आद्यं संरम्भ-समारम्भा -ऽऽरम्भ-योग-कृत- कारिताऽनुमत-कषाय विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुःश्चैकशः ॥९॥ अर्थ - आद्य अर्थात् जीव अधिकरण के संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, योग, कृत, कारित, अनुमत और कषाय ये भेद हैं। इन (भेदों) के अनुक्रम से तीन, तीन, तीन और चार भेद हैं । निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग- निसर्गाद्वि-चतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥१०॥ अर्थ - परम अर्थात् अजीव - अधिकरण के चार प्रकार हैं - निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग । इनके क्रमशः दो, चार, दो और तीन उपभेद हैं । तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्या -ऽन्तराया -ऽऽसादनोपघाता ज्ञान- दर्शना - ऽऽवरणयोः ॥११॥ अर्थ - १. प्रदोष, २. निह्नव, ३. मात्सर्य, ४ . अन्तराय, ५. आसादन और ६. उपघात ये ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म के बंध हेतु हैं । दुःख-शोक-तापा - ऽऽक्रन्दन-वध- परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥१२॥ अर्थ - स्वयं, अन्य या दोनों के विषय में दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन से असाता -

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