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तत्त्वार्थ सूत्र
संख्येया- ऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥१०॥
अर्थ - पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात तथा
अनंत प्रदेश भी हैं ।
नाणोः ॥११॥
अर्थ - अणु (परमाणु) के प्रदेश नहीं होते हैं I लोका -ऽऽकाशे ऽवगाहः ॥१२॥
अर्थ - सभी द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं ।
धर्मऽधर्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥
अर्थ धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं ।
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एक प्रदेशाऽऽदिषु भाज्य: पुद्गलानाम् ॥१४॥ अर्थ - पुद्गल द्रव्य एक प्रदेश से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश परिमाण होने योग्य है ।
असंख्येय-भागाऽऽदिषु जीवानाम् ॥१५॥
अर्थ जीवद्रव्य का अवगाह लोकाकाश के
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असंख्यात भाग से लेकर समस्त लोकाकाश में है । प्रदेशसंहार - विसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥
अर्थ क्योंकि दीपक की तरह उनके प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता है ।
गति - स्थित्युपग्रहौ - धर्मा - ऽधर्मयो- रूपकारः ॥१७॥ अर्थ - गति और स्थिति में निमित्त बनना क्रमशः धर्म और अधर्म द्रव्यों का कार्य है ।
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