________________
ताओ उपनिषद भाग ४
गए।
लाओत्से कहता है, लेकिन तुम्हारे भीतर जो छिपा हुआ परमात्मा है, वह गैर-तराशी हुई लकड़ी की भांति है। उसे तुम चाहो तो भी तराश नहीं सकते।
तुम अपने को तराश कर बाजार में बेच सकते हो; तुम्हारी कीमत भी मिलनी शुरू हो जाएगी। लेकिन तब स्वभाव से संबंध तुम्हारा छूट जाएगा। तराशा हुआ जो रूप है वह है संस्कृति। लाओत्से के लिए संस्कृति विकृति का ही अच्छा नाम है। लाओत्से प्रकृति का बिलकुल पागल भक्त है। वह कहता है, जो है, जैसा है, वैसा ही! उसमें तुम इंच भर फर्क मत करना। क्योंकि तुमने फर्क किया कि तुम परमात्मा से ज्यादा समझदार हो गए।
एक तो परमात्मा है जो मुझे बनाता है। और फिर एक मैं हूं जो अपने को बनाता हूं। परमात्मा आपको जन्म देता है; परमात्मा से आप पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, बड़े होते हैं—एक जंगली पौधे की भांति। शायद उसकी बाजार में कीमत न हो। जापान में वे पौधे लगा कर रखते हैं। स्वामी रामतीर्थ जब पहली दफा जापान गए तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने तीन-तीन सौ साल पुराने वृक्ष देखे, जिनकी ऊंचाई पांच इंच थी। वे बहुत हैरान हुए, तीन सौ साल पुराना वृक्ष
और ऊंचाई पांच इंच! उनकी कुछ समझ में न आया। उन्होंने पूछा, इसका राज क्या है? तो माली ने राज बताया कि गमले के नीचे से वे जड़ें काटते रहते हैं; नीचे जड़ नहीं बढ़ पाती, ऊपर वृक्ष नहीं बढ़ पाता। तो तीन सौ साल पुराना हो जाता है, लेकिन होता है पांच इंच, दस इंच ऊंचा; बौना रह जाता है। वे जड़ को नीचे से बढ़ने नहीं देते; ऊपर वृक्ष नहीं बढ़ पाता। फिर उसको, जैसी शाखाएं उनको बनानी हैं, वैसे तारों से उसको गूंथ देते हैं। शाखाओं के भीतर भी खीलें ठोक देते हैं। जैसा मोड़ना है वैसा मोड़ते हैं; जैसा बनाना है वैसा बनाते हैं। एक सुंदर कलाकृति बन जाती है। लेकिन वृक्ष मर जाता है; उसकी आत्मा मर जाती है। वह जो परमात्मा ने जैसा उसे चाहा था, वैसा वह नहीं हो पाता; माली ने जैसा चाहा, वैसा हो जाता है।
हम सब भी, जैसा परमात्मा ने हमें चाहा है, वैसे नहीं हो पाते। हम सब तराश कर बाजार के काम के हो जाते हैं। लेकिन भीतर का स्वभाव विकृत हो जाता है। __ लाओत्से कहता है, वह है गैर-तराशी लकड़ी की भांति, जिसका कोई भी उपयोग नहीं हो सकता।
यह बड़ी कठिन धारणा है। लाओत्से कहता है, उपयोग की बात ही गलत है। जीवन कोई बाजार नहीं है। उपयोगिता, यूटिलिटी बात ही व्यर्थ है। लाओत्से के हिसाब में उपयोगिता से ज्यादा गंदा कोई शब्द नहीं है। क्या उपयोग है चांद का रात में? और क्या उपयोग है एक फूल जब जंगल में खिलता है उसका? क्या उपयोग है सूरज के परिभ्रमण का? क्या उपयोग है सागरों का? क्या उपयोग है बहती हुई नदियों का?
सारा जगत निरुपयोगी है। जगत में कोई उपयोगिता नहीं है। उपयोग आदमी के मन की खोज है। आदमी पूछता है फौरन, इसका उपयोग क्या है ? इसको किस काम में लाया जाए? थोड़ा समझें हम। यह उपयोगिता की जो इकोनामिक्स की, अर्थशास्त्र की धारणा है कि वही चीज कीमत की है जिसका कोई उपयोग है। तो आपकी आत्मा का क्या उपयोग है? कोई उपयोग है? कोई उपयोग नहीं है। आत्मा से ज्यादा निरुपयोगी कोई चीज हो सकती है? क्या करिएगा इस आत्मा का? आपके जीवन का क्या उपयोग है? आप न होते तो हर्ज क्या था? और आप नहीं हो जाएंगे तो क्या हर्ज हो जाने वाला है? परम अर्थों में, किसी चीज का कोई उपयोग नहीं है। अस्तित्व आनंद है, उपयोग नहीं। अस्तित्व एक उत्सव है, उपयोग नहीं।
लेकिन हमारी उपयोगिता की धारणा है। हर चीज को सोचते हैं : इसका उपयोग क्या? यह किसी काम में आनी चाहिए। अगर काम में आ सकती है तो ठीक है; और अगर किसी काम में नहीं आ सकती तो व्यर्थ है। लेकिन आपको पता है, जीवन में केवल उन्हीं क्षणों में आनंद उपलब्ध होता है, जिनका कोई काम नहीं है। जिनसे न आप बंदूक की गोली बना सकते हैं, न बैंक का नोट बना सकते हैं, जिनसे आप कुछ भी नहीं कर सकते। सुबह आप उठे
10