________________
मु०प्र०
॥४३॥
प्रात्मानं दुःस्वपोड़ितम् । गृहीवा जिनलिंग हि जिनधर्मप्रभावतः ॥क्षा संसारदुःखनाशार्थ २ रे आत्मन् पिबाधुना । सम्यग्ज्ञानसुधां सद्यः शियी भवाविनश्यर ॥३०॥ त्यज मोह भजामानं मुञ्च मुच परिप्रहम् । ध्यानं कुरु जिनेन्द्रस्य कर्मपङ्कविनाशकम् ।।३८।। रत्नत्रयं भजात्मन् त्वं सुदृग्बोधत्रतारमकम् । येन दुरन्तसंसारसागरस्तीर्यते महान् ।।३६।। निर्ममोहं भविष्यामि पुत्रादिनोहदूरगः । स्वात्मनं धारयाम्यत्र स्वात्मनि स्वात्मसिद्धये ॥४॥ कथं केन प्रकारेण संसारं च त्यजाम्यहम् । जगत्पूतकरं वृत्तं धारयामि कथं ननु ॥४१॥ हा हाई बंचितो नूनं मोहनी येन कर्मणा। अद्यापि येन न त्यक्तो गृहवासोतिभोमकः ॥४२॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गृहवासं त्यजाम्यहम् । पुत्रं मित्रं कलत्रं च संसारस्य च बन्धनम् ॥४शा न मे पुत्रा न मे दाराः न च वस्तु धनादिकम् । परवस्तु निजं मत्वा वृथैव पतितो भवे ॥४४॥ तस्मानिःशंकभावेन जिनदीक्षां प्रपद्य च । निर्ममत्वेन भावेन स्वात्मानं भावयाम्यहम् ॥४शा स्वशरीरेपि नैराश्य
लिंग धारण करूँगा और अनेक दुःखोंसे दुःखी हुए अपने आत्माको इस संसारसे शीघ्र ही छुड़ाऊँगा ॥३६॥ हे आत्मन् ! अब इन संसाररूपी दुःखोंको नाश करनेके लिये सम्यग्ज्ञानरूपी अमृतको शीघ्र ही पी और कमी न नाश होनेवाली सिद्ध अवस्थाको धारण कर ॥३७॥ हे आत्मन् ! तू मोहका त्यागकर आत्माका चितवन कर, परिग्रहोंका त्यागकर और कर्मरूप कलंकोंका नाश करनेवाले भगवान् जिनेन्द्रदेवका ध्यान कर ॥३८॥ हे आत्मन् ! तू सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्बर चारित्ररूप रचत्रयका सेवन कर; जिससे कि तू इस दुर्रत संसार रूपी महासागरसे पार हो जाय ॥३९।। अब मैं पुत्र मित्र आदिका मोह दूरकर ममत्वरहित हो जाऊँगा और | अपने आत्माकी सिद्धिके लिये अपने ही आत्मामें अपने आत्माको धारण करूँगा ।।४। परंतु मैं इस संसारका त्याग कैसे करूँगा और जगत्को पवित्र करनेवाले सम्यक् चारित्रको कैसे धारण करूँगा।॥४१॥ हा हा! मुझे तो मोहनीय कर्मने ठग लिया है, क्योंकि मोहनीय कर्मके कारण ही आजतक मैं इस भयानक घरके निवासको नहीं छोड़ सका हूँ॥४२॥ इसलिये में सब तरहके प्रयत्नकर सरसे पहले इस परके निवासका त्याग करूँगा और संसारका बन्धन करनेवाले पुत्र, मित्र और स्त्री आदिका त्याग करूँगा।।४३।। इस संसारमें न तो कोई मेरा पुत्र है, न कोई मेरी स्त्री है और न कोई धन-धान्य आदि अन्य पदार्थ मेरे हैं। मैं पर पदार्योंको अपना समझकर व्यर्थ ही इस संसारमें पड़ रहा हूँ ॥४४॥ इसलिये निःशंक परिणामोंसे मैं जनदीक्षाको धारण