Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 165
________________ सु० प्र० व १५० ॥ त्मना । निर्विकल्पसमाधौ वा धारियामि कथं मुदा ||४७|| || इति चिन्तापरत्वेन चैकाप्रमनसा हि यत् । चिंतनं तदपायास्यं ध्यानं कर्मविनाशकम् ||४८|| सम्यत्रत्नत्रयं कर्मनाशायात्र कथं दधे । उपायविचर्यं ध्यानं तदुपायस्य चिन्तनम् ॥४६॥ कथं स्यात्सर्वजीवस्य रक्षा मे जिनधर्मतः । तदर्थं चिम्सनं ध्यानमुपायविचयाभिधम् ||१०|| व्यतीतोऽनन्तकाली में भ्रमतो हा tara | अद्यापि न मया प्राप्तं तस्यास्तीरं विमोहिना ॥५१॥ श्रीजिनधर्मपांथस्य साहाय्येन च प्राप्यते । साहाय्यं हि कथं मे स्वात्स पोिऽत्र च सङ्कटे ॥१५२॥ तत्तीरप्राप्तये शुद्धभावेन चिन्तयाम्यहम् । येन भवाटवोतीरं सुखी प्राप्य भवान यहम् ||५३॥ इति चिन्तापरत्वेन चैकाग्रमनसा पुनः । चिन्तनं तदपायाख्यं ध्यानं दुर्गतिदायकम् ||२४|| मिध्यात्वेन चन्धोऽहं तवं पश्यामि नैव वा । तस्मादेव भवागर्ते पतितो जनुषधिवत् ॥५५|| चिरकालं हि तत्रैव सहे दुःखं मुदा ha धारण करूंगा ? और अपने आत्माको अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें कब स्थापन करूंगा अथवा इस अपने आत्माको प्रसन्न होकर निर्विकल्पक समाधिमें कब स्थापन करूंगा १ इसप्रकारके चितवनपूर्वक एकाग्रमनसे चितवन करना कमको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।४६-४८ ॥ कर्मों को नाश करनेके लिये मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति कम होगी ? इसप्रकार रत्नत्रय की प्राशि के लिये उपायों का चिन्तवन करना उपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥ ४९ ॥ मेरे इस जैनधर्मसे सब जीवों की रक्षा किमप्रकार होगी। इसप्रकार चिन्तन करना उपायषिचय नामका धर्मध्यान है ॥ ५० ॥ हाय ! दाय! इस संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करते हुए मुझे अनंत काल व्यतीत हो गया तो भी विमोहित होनेवाले मुझे आजतक उसका किनारा प्राप्त नहीं हुआ, उस संसाररूपी नका किनारा इस जैनधर्मरूपी पांथ की सहायता से ही प्राप्त हो सकता है, परंतु इस संकट में उस जैनधर्मरूपी पका सहारा कब मिल सकता है ? इसप्रकार उसे संसारका किनारा प्राप्त करनेके लिये मैं शुद्ध भावोंसे चितवन करूंगा, जिससे कि संसाररूपी वनका किनारा पाकर में अत्यन्त सुखी हूँगा । इसप्रकार चितवन करते हुए एकाग्रमनसे चितवन करना दुर्गतिको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है ||५१ - ५४ ॥ मिध्यात्व कर्मके उदयसे मैं जन्मान्ध पुरुषके समान अंधा हो रहा हूं, इसीलिये मैं तखों को देख नहीं सकता और इसीलिये मैं इस संसाररूपी गढ़में पड़ा हुआ हूं। उसी संसाररूपी गढ़में पड़ा हुआ में दारुण दुःखको सहन कर रहा हूं, उस संसाररूपी गढ़ेसे शीघ्र ही सुख देनेवाला मेरा उद्धार कब होगा ? अथवा उस गसे उठाकर BHAKKRISHAN भा

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