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एकोनविंशोऽधिकारः।
कर्मणामुदयो यस्य चित्ते नैष विकारकः। तं बीतरागं योगीशमरनाथं नमाम्यहम ॥११॥ अनादिकालती जीवः पूर्वसंचितकर्मणाम् | भुज्यते चोदयेनैव भवावलि सुदुद्धराम ॥२॥ कर्मणां हि विपाको यः सुखदुःखादिकारकः । श्वभ्रः तिर्यम्तृदेवादेविचित्रगविदायकः ॥३॥ कर्मणामुदयस्तत्र चिन्त्यते हि मुमुक्षुणा । अन्यचिन्तानिरोधेन चैकाप्रमनसा हि सः ॥४॥ विपाकविचयं ध्या कर्मफलप्रदर्शकम् । श्रीमजिनेन्द्रदेवेन कथित तजिनागमे ॥शा कर्मणामुदयो योऽत्र संसा. रोऽस्ति स एव वा । कर्मणामुदयो यावत्संसारस्तावदेव हि ॥६॥ इति मत्वा सुभव्येन कर्मोदयविचारणा।क्रियतेऽत्र सदैकाम | चिन्ता संरोधपूर्वकम् ॥ विपाकविषयं तद्धि ध्यानं निर्वेदवद्धकम् । निरंतर सुभन्येन ध्यातव्यं कर्महानय
जिनके हृदयमें कर्मोंका उदय कुछ विकार उत्पन्न नहीं करता, ऐसे योगिराज वीतराग भगवान् । । अरनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ यह जीव पहले संचित हुए. कोंके उदयसे प्राप्त होनेवाली अत्यंत | दुर्धर ऐसी जन्म-मरणरूपी संसारकी परंपराको अनादि कालसे भोगता चला आया है ।।२। इन कर्मोंका विपाक | सुख दुःखादिकको देनेवाला है और नरक, तियंच, मनुष्य, देवादिककी विचित्र गतियोंको देनेवाला है | ॥३॥ इसप्रकार मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीव अन्य सब चितवनोंको रोककर एकाग्र मनसे कमौके उदयका जो चितवन करते हैं, उसको कोक फलको दिखलानेघाला विपाकविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं, ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने जिनागममें बतलाया है ॥४-५|| जो कर्मोंका उदय है, वही संसार है । क्योंकि जबतक कर्मोंका उदय रहता है तभीतक संसार रहता है ॥६॥ यही समझकर भव्य जीवोंको काँके | | उदयका विचार करना चाहिये तथा अन्य समस्त चिंताओंको रोककर एकाग्र मनसे चितवन करना चाहिये।