Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 189
________________ म०प्र० ॥१७॥ ARRIERSYKARSESEXKSERIENCE K मूर्द्ध वायुप्रप्रेरितम् । 'अन्तर्दहति मन्वापिन हिरनमालाः ॥२!! ततश्च स्वशरीरं वाग्नेकलापेन निर्दहेत् । भस्मभावं सामासाध्य शरीरमन्नमारहेन ॥२५॥ साह्याभावात्स्वयं बहिः शाम्यत्येव शनैः शनैः। यावन्न याति शान्ति सतावनिर्भयचेतसा IR|संततं चिन्तयेद्वीमान् वह्निमण्डलक परम् । एवं हि चिन्त्यमानेऽस्मिन् स्थिरचित् प्रजायते ॥२७॥ आकाशमार्गमाव्याप्य संचरतं सुवेगतः । दारयन्त धराधोशं शोनयन्तं घनाघनम् ! २८|| चक्रपालं विसर्पन्तं भुवनाभोगपूरितम् । कम्पयन्तं दिशः सर्ग दर्शयन्तं महाबलम् ॥२६॥ एतादृशं महावायु चिन्तयेच्छुद्धचेतसः । तेन वायुबलेनैव तद्रजः क्षिप्यतेऽयरम् ॥३०॥ शुद्धरूपं स संप्राप्य वायुच शान्तिमान येत्। एवं हि चिंत्यमानेन शुद्धरूपे लयो भवेत् ॥३१॥ ततो हि मेघमाला च धारासंपावसंयुताम् । तदिद्विद्योतिताकाशामिन्द्रचारसमन्विताम् | 7 ऊपरको जानी चाहिये । इसप्रकार मंत्ररूप अग्नि अंतःकरणको जला रही है और बाहरका अग्निमंडल बाहरी EX भागको जला रहा है, इसतरह चितवन करना चाहिये ॥२३-२४॥ तदनंतर उस अग्निकी बालासे है अपने शरीरको जलाना चाहिये और जब तक मस्म न हो जाय तब तक शरीर और कमलको जलाते रहना नाहिये । इसप्रकारका चितवन करना चाहिये ॥२५|| जब जलने के लिये कोई पदार्थ न रहेगा तब धीरे धीरे वह अग्नि अपने आप ही शांत हो जायगी । जस्तक वह अग्नि शांत न हो तबतक निर्मय चित्त होकर | | उस बुद्धिमान्को सदा उस उत्कृष्ट अग्निमंडलका चितवन करते रहना चाहिये । इसप्रकार चितवन वा ध्यान करनेसे यह चित्त अत्यन्त स्थिर हो जाता है ॥२६-२७|| इसको आग्नेयी धारणा कहते हैं। तदनंतर । | वारुणी धारणाका चितवन करना चाहिये। अपने शुद्ध हृदयसे एक महावायुका ध्यान करना चाहिये। वह |* वायु समस्त आकाशमार्गमें व्याप्त हो, बड़े वेगसे संचार कर रहा हो, बड़े बड़े पर्वतों को भी विदीर्ण कर रहा हो, हलके या भारी रूपसे शोभायमान हो, अपने मंडलको फैला रहा हो, समस्त भूमंडलमें मर गया हो. समस्त दिशाओंको कंपायमान कर रहा हो और अपना महाबल दिखला रहा हो; ऐसे महावायुका शुद्ध | हृदयसे चितवन करना चाहिये। उस महावायुसे उस शरीर और कमलकी धूलि शीघ्रताके साय उड़ रही है, का ऐसा चितवन करना चाहिये । इसप्रकार आत्माका स्वरूप शुद्ध बनाकर उस वायुको शांत कर देना चाहिये। | इसप्रकार चितवन करनेसे वह आत्मा अपने शुद्धरूपमें लीन हो जाता है ॥२८-३१॥ इसको वारुणी धारणा

Loading...

Page Navigation
1 ... 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232