Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 200
________________ मा. मु.प्र० जपनेनात्र स्वास्मबोधः प्रजायते । प्रकाश्यते शिवो मार्गः शाश्वतः सौख्यदायकः ॥७|| णमोकारयुत चत्तारि इति दयनक सदा । ध्यायेष चिन्तयेद्योगी जपेद्वा शुद्धभावतः ॥७२।। तस्य नित्यं जपेनात्र महाशान्तिः प्रजायते । नश्यन्ति सर्वविनानि जायन्तेऽत्र सुखानि वा शा चतुर्विशतितीर्थानां नामानि शुभभावतः। चिन्तयेच्च जपेद्धस्या ध्यायेत सर्वसिद्धय १७४|| जपेच ओं नमः सिद्धेभ्यश्च षडक्षरात्मकम् । सर्वत्र सर्वकार्येषु भक्त्या नित्यं दिवानिशम् ।।७५|| नियमन प्रसि. द्धधन्ति जपनेनास्य सत्वरम् । सर्वकार्याणि जीवानां विघ्न नश्यति तत्क्षणात् ॥६॥ एनं मन्त्रं हि प्रत्येककार्येषु सर्वसिद्धये यतिर्वात्र गृहस्थो हि अभ्यसेत्तु निरन्तरम् ॥७७॥ स शुद्धो वान्यशुद्धो वा रोगी रङ्कःशुभाशुभः । दीनो होनाऽत्र गुर्वा ह्मनं सदा जप करना चाहिये ॥६९-७०।। इस मन्त्रका जप करनेसे आत्मज्ञान प्रगट होता है और सुख देनेवाला सदा रहनेवाला मोक्ष-मार्ग प्रगट होता है ॥७१। इसीप्रकार "णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आहरीयाणं । णमो उवज्झायाणं यो लोए सनसाइणं । चत्तारिमडलं अरहंत मङ्गलं सिद्धमङ्गलं साहमङ्गलं केवलि | | पण्णत्तो धम्मोमङ्गलं चत्तारि लोगुत्तमा अरईत लोगुत्तमा सिद्ध लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो | धम्मो लोगुत्तमा चत्तारि सरणं पब्बजामि अरहत सरण पब्बजामि सिद्ध मरणं पबजामि साहू सरणं पब्दजामि | SI केवलि पण्णत्तो धम्मो सरग पब्बजामि" इसको दण्डक कहते हैं । योगियोंको अपने शुद्धभावोंसे इसका मी | श्री ज्यान करना चाहिये, चितवन करना चाहिये और जप करना चाहिजे ॥७२॥ इस मन्त्रके जप करनेसे महा| शांति प्रगट होती है, सब विघ्न नष्ट हो जाते हैं और सब सुख प्रगट हो जाते हैं ॥७३॥ समस्त कार्योको | सिद्ध करनेके लिये शुभ मावोंसे चौबीसों तीर्थकरोंके नामोंका चितवन करना चाहिये, मक्तिपूर्वक जप करना | | चाहिये और ध्यान करना चाहिरे ॥७४।। "ॐ नमः सिद्धेभ्या" यह छह अक्षरोंका मन्त्र मी शुभ है, इसको | सब जगह समस्त कार्यों में भक्तिपूर्वक रात-दिन सदा चिंतन करते रहना चाहिये ॥७५।। इसके जप करनेसे | | जीवोंके समस्त कार्य नियमपूर्वक शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं और सर विघ्न उसी समयमें नष्ट हो जाते हैं | ॥७६|| चाहे कोई मुनि हो और चाहे कोई गृहस्थ हो, समस्त कार्योंकी सिद्धि के लिये प्रत्येक कार्यमें प्रत्येक | जीवको सदा इसके जपनेका अभ्यास करते रहना चाहिये ॥७७॥ वह जीव चाहे शुद्ध हो चाहे अशुद्ध हो, | ०५०४

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