Book Title: Sudharma Dhyana Pradip
Author(s): Sudharmsagar, Lalaram Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 227
________________ म०प्र० ॥१२॥ RCH क्षमागारः क्रोधादिभाववर्जितः। श्रात्मैव शाश्वतं द्रव्यमन्यत्सर्व विनश्वरम् ॥६॥ प्रात्मैव मेऽचलो नित्यो सादिमध्यान्तवर्जितः । स नित्यस्थितिको स्वामी स्वयम्भूरविनश्वरः ॥७०त्मैव मे परं वन्धुखाता पाता पितामहः । त्रिजगजयिनः कामात्संसारापापकर्मत: शा आत्मैव मे परं पूज्योऽगतो विगतकल्मषः। भास्मैव मे परं देवी जगन्धः सुतारकः ।७२|| आत्मैव मे परं ब्रह्म चतुर्वेदी चतुर्मुखः । श्रात्मैव मे महादेवः शिवाभूः शिवनंदनः ।।७शा भास्मनो शानमाध्यानमात्मनः स्मरणं परम । पात्मनो मे परेज्या स्याहे जिनेश भवे भवे ॥बहवोऽपि मास्मैव सुगतो हता दुर्गतिः। प्रात्मा देवाधिदेवो हि सर्वदेवनमस्कृतः ||७ जिनश्चात्मा जिनश्चारमा सामेव स जिनो जिनः । भात्मैव मे शरण्यं हि जिनरूपो भवाम्बुधौ ||६|| तीर्थश्यात्मास्ति यात्मक तीर्थनाथो जगद्विभुः । आत्मैव मे परं देवो स एव देवघर है और यही मेरा आत्मा नित्य द्रव्य है। इसके सिवाय अन्य मय पदार्थ नाशवान् हैं ॥६९।। यह मेरा आत्मा ही अचल है, नित्य है, आदि-मध्य-अन्तरहित है, यही मेरा आत्मा नित्य स्थितिको धारण | | करता है, यही आत्मा स्वामी है, स्वयंभू है, अविना है। यह गेर बारमाही परम बन्धु है, यही आत्मा पितामह है, तथा यही आत्मा तीनों जगत्को जीतनेवाले कामसे, संसारसे और पापकर्मोंसे रक्षा करनेवाला वा बचानेवाला है ॥७१॥ यह मेरा आत्मा ही परम पूज्य है, गतिरहित है, पापरहित है, तथा यही मेरा आत्मा परम देव है, जगद्वन्ध है और संसारसे पार कर देनेवाला है ॥७२।। यह मेरा आत्मा ही परमब्रम है, आत्मा ही चारों अनुयोगोंको जाननेवाला चतुर्वेदी है और यही आत्मा चतुर्मुख है, यही मेरा आत्मा महादेव है, शिवाभू (कल्याणमय) है और यही मेरी आत्मा शिवनन्दन है ।,७३|| हे जिनेन्द्रदेव! | मव मवमें मुझे आत्माका ही ज्ञान प्राप्त हो, आत्माका ही न्यान हो, आत्माका ही उत्कृष्ट स्मरण हो और मेरे | आत्माकी ही पूजा हो ॥७४। यही मेरा आत्मा अरहतदेव है. यही मेरा आत्मा सुगत वा बुद्ध है, यही आरमा समस्त दुर्गतियोंको नाश करनेवाला है, यही मेरा आत्मा देवाधिदेव है और यही मेरा आत्मा मर देवोंके द्वारा नमस्कार किया जाता है ।।७५॥ ये जिनेन्द्र ही मेरा आत्मा है, जिनेन्द्र ही मेरा आत्मा है, मेरा आत्मा ही | जिनेन्द्र हैं, जिनेन्द्र हैं। तथा यही मेरा आत्मा संसाररूपी समुद्र में शरणरूप है और भगवान् जिनस्वरूप है ॥७६।। यह मेरा आत्मा ही तीर्थ है, यही मेरा आत्मा तीर्थनाथ है, जगद्विभु है, यही मेरा आत्मा

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